Thursday, 31 December 2015

मेरी ‘स्पेस’ अधूरी है .....तुम्हारे बगैर !



“जिस पर सबसे ज़्यादा यक़ीन हो
उसे सबसे पहले परखो”
यही कहा था न ....
तुमने उस दिन !
और फिर धीरे से बुदबुदाई थीं
“ये मैं नहीं कहती,
शरलॉक होम्स ने कहा है।”
सुनो सखिया.....
नहीं परखना मुझे किसी को,
प्रेमी हूँ मैं, जासूस नहीं !!

पता नहीं क्यों
ख़त मैं तुम्हें लिखता हूँ
और तकलीफ किसी और को होती है।
मैं नहीं उलझूंगा मगर,
लाख कोई उकसाये।
कितनी मुश्किल से छूटी है
वो बेढब आवारगी।

एक कसमसाती केंचुली
जो मेरा दम घोंट रही थी;
तुम्हारे एक जादू भरे स्पर्श ने
मुझे उस केंचुली से मुक्त कर दिया।
इसी बहाने,
कुछ अपने(?) छूट गये
हल्की हो गयी
ये बोझा ढोती ज़िंदगी।

ना ना ....
निराश कतई नहीं मैं !
बस सोच रहा हूँ
कि बीता हुआ साल
गुड़ की पन्नी में, अमचूर लपेट कर दे गया।
मैंने भी बिना देखे उस मुँह में रख लिया।
अब ये खटास सहन नहीं होती,
चुभन होने लगी है दाढ़ के बीच।

स्थिर खड़ा रहता हूँ एक ही जगह
और मन ही मन मैं दूर निकल आता हूँ
इतनी दूर....
कि फिर चाह कर भी नहीं लौट पाता।

पत्थर से रिश्ता जोड़कर
खुद काँच बन जाता हूँ,
चूर-चूर होता रहता हूँ
मगर आह नहीं कर पाता हूँ।

उस दिन कहा था ना तुमने
“देव,
ख़ुद को थोड़ा स्पेस देना सीखो।” 
तब तुम्हारी बात ठीक से नहीं समझ पाया था।
मगर आज नए साल की पहली सुबह
इस खिले हुये नीलकमल को देखा
तो सब समझ आ गया।
नीलकमल....
जो मेरी लाख कोशिशों के बाद भी,
नहीं खिल पा रहा था।  
जिसे कीचड़ से निकाला तुमने
और एक छोटे से गमले में रोप कर  
फिर से पानी में डुबो दिया
तो कलियाँ आ गईं
तो फूल खिल उठा।

मुझ जैसे अनाड़ी को
स्पेस के मायने समझा दिये तुमने।
नए साल में अब,
थोड़ी जगह मैं अपने लिये भी रखूँगा
..... सिर्फ अपने लिये।
ख़ुद में रहूँगा
ख़ुद को जीऊँगा
बेगाने तंज़ पर ध्यान नहीं दूँगा।
मगर हाँ,
मेरी स्पेस अधूरी है
.....तुम्हारे बगैर !
ये न भूल जाना।

एक हल्की सी कसक भी है
पहली बार ऐसा हुआ है  
जब हम दोनों नए साल का जश्न
दूर रहकर मना रहे हैं।

सुनो...
कल से ही तुम  
बहुत याद आ रही हो।
चाहे कुछ भी हो,
मैं शाम वाली गाड़ी से आ रहा हूँ,
गाज़र का हलुआ बना कर रखना।  
साथ-साथ खाएँगे,
जी भर बतियाएंगे।  
नए साल का पहला प्यार।

तुम्हारा

देव 


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