तुम
कहती हो ना
कि
हर देह की अपनी एक गंध हुआ करती है !
मुझे
लगता है
कि
वक़्त की भी एक सुगंध होती है
जो
तब और मादक हो उठती है
जब
वक़्त हमारे हाथों से जा चुका हो।
गुज़रा
हुआ वक़्त,
लौट
कर हमारे पास आया करता है।
....
और-और मादक होकर !
आज
फिर एक सुगंध
मुझे
कुछ याद दिलाने आई
अपने
माज़ी को साथ लिए।
बचपन
और कैशोर्य के बीच सिमटे
वो
निकर पहनने के दिन !
कस्बे
की सरहद,
सरहद
पर किला।
एक
उथली सी नदी
नदी
के इस पार एरन के पत्थरों से बना हनुमान मंदिर,
जिसे
सब मठ कहा करते।
नदी
के उस पार शीतला माता का मंदिर,
मंदिर
के ठीक ऊपर कबीट के पेड़ की छांव।
वही
कबीट....
जिसका
नाम सुनकर
तुम
पहले-पहल ज़ोर से खिलखिला उठी थीं
फिर
मुझे डिक्शनरी में खोज कर
तुमको
ये बताना पड़ा था
कि
इसका एक नाम ‘वुड-एपल’ भी है।
पत्थर
मार-मार कर कबीट तोड़ना
इस
बात का भी ख़याल रखना
कि
कहीं, कबीट सिर पर न गिर जाये
वरना ‘गूमड़’ उभर आएगा।
माँ
कबीट खाने से मना करतीं –
“मत
खा बेटा
लक्कड़
खटाई है, नुकसान करेगी !”
और
मैं...
पके
हुये कबीट का
चॉकलेटी-पल्प
उँगलियों से चाटता रहता।
शायद
उन्हें चिढ़ाने के लिए
या
ये जताने के लिए
कि
मेरी देह नुकसान से परे है !
कॉलेज
के दिन आए
मैं
शहर चला आया।
यहाँ
फिर कबीट दिखा
इस
बार पेड़ पर नहीं, एक स्त्री के ठेले पर !
साबुत
कबीट, बेर-जाली, पेमली बेर, कच्ची-पक्की
इमलियाँ
और
दो-तीन तरह की चटनियाँ
उनमें
से एक चटनी कबीट की भी !
गुड़
और नमक को मिलाकर बनाई हुई चटनी,
जिसे
वो पत्तों पर रखकर
चूरन
के साथ दिया करती।
ज़ोर
से पुकार लगाती, लयबद्ध तरीके से ठेला धकियाती
दशकों
तक आती रही वो।
दीवाली
के बाद से लेकर पूरी सर्दियों तक
हर
रोज़ दुपहरी को आती।
साँवली, सुती हुई देह
तांबई
से कुछ ज़्यादा गहरा रंग
जूड़ा
बनाए, एक लट बाएँ गाल पर लटकती हुई
आँखों
में गज़ब का विश्वास
और
एक अजीब सा आकर्षण !
दशक
बीते, वो आती रही
हमेशा
वैसी ही दिखती
जैसी
कि पहली बार नज़र आई थी।
मुझे
देखकर एक निर्दोष-निश्छल मुस्कान देती
चाहे
मैं उससे कुछ खरीदूँ या न खरीदूँ !
तुम
सोचोगी
बावरा
हो गया हूँ मैं
संदर्भों
से परे बड़बड़ा रहा हूँ,
मगर
कल बरसों बाद
मुझे
एक कबीट का पेड़ दिखा
और
मैं ....
फिर
से ‘ट्रांस’ में चला गया !
अजीब
सी मादक गंध तारी हो गयी मुझ पर।
कितने
अनूठे हैं ये दिन ....
चीनी
मिट्टी की बरनियों में
नया
अचार डाले जाने के दिन !
पेड़
की मोटी शाखों पर
सावन
के झूलों के दिन !!
तुमसे
दूर बैठकर
तुमको
शिद्दत से जीने के दिन !!!
जाना
मेरी,
कभी
कोई लॉक-डाउन
उमंगों
के झूले को रोक पाया है भला ?
आओ
मेरे पास !
ख़यालों
की शाख पर,
हसरतों
का झूला डाला है मैंने इसबार सावन में।
बैठो
इस झूले पर
मैं
तुम्हें झूला झुलाऊँ।
तुम्हारा
देव
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