Friday, 21 August 2020

रफ़्ता-रफ़्ता दूर होती, जीती-जागती दास्तान !

 


देव मेरे,

वे शामें  हम कभी नहीं भूल पाते

जो बहुत पीड़ा या ख़ुशी में गुज़री हों।

आज की शाम में ऐसा कुछ नहीं था

तब भी, वो मेरे स्मृति-पटल पर थिर गई है।

 

सीली सी शाम, बारिश का अंदेशा

थमता-चलता ट्रैफिक

और दो बूढ़े जिस्म !

शायद दो दोस्त, दो भाई, दो पड़ोसी

.... या सिर्फ वॉकिंग-पार्टनर्स !

लगभग हमउम्र से।

एक जिस्म थोड़ा ज़्यादा झुका हुआ

और दूसरा बनिस्बत कम !

एक ने देसी परिधान पहन रखा

तो दूसरा लोअर-टीशर्ट में !

एक N-95 मास्क पहने

तो दूसरा, अपनी तर्जनी से ठोड़ी सहलाता हुआ !

 

ऐसा लगा,

कि जीती-जागती दास्तान है कोई

जो रफ़्ता-रफ़्ता हमसे दूर होती जा रही है।

और हम...

आम दिनों की आम घटना की तरह

देखकर भी कुछ नहीं देख पा रहे।

जलती हुई स्ट्रीट-लाइट्स

वाहनों की जगमगाती हेड-लाइट्स

और भीड़ भरी नई सड़कों पर घूमते

थके हुए पुराने जिस्म।

 

कभी तुमने सोचा

कि जब हम इस उम्र में आएँगे

तब कैसे होंगे !

जानती हूँ

तुम सोचते हो, पर बताते नहीं

और एक मैं हूँ...

जो बता तो दिया करती हूँ

लेक़िन ज़्यादा सोचती नहीं।

वैसे,

सबसे ग़हरा निशान उम्र का ही होता है

जो सिर्फ झुर्रियाँ नहीं देता

झुका भी देता है

और ठहरा भी देता है।

 

मानती हूँ

कि प्यास का बना रहना

प्यास के मिट जाने से कहीं अधिक मोहक है

मगर...

प्यास इतनी भी प्यासी न रह जाये

कि वो, अपनी तासीर ही खो बैठे !

इसीलिए मैं अक़्सर

तुम्हारे घर के क़रीब आकर भी लौट जाती हूँ !

इसीलिए कभी-कभी

मैं तुमसे मिलने चली आती हूँ !

 

जानती हूँ

कि ये उम्र, जो गुज़र रही है

कल किसी न किसी रूप में

एक मलाल छोड़ जाएगी..

लेक़िन ये ट्रैजडि तो हमेशा

हम सब के साथ रहेगी !

इसलिए,

छटपटाया मत करो।

 

रिश्तों को सहेजने के लिए

ज़्यादा बेक़ल भी न हुआ करो।

तितली का रंग, छोटा सा पंख

या प्रेयस का अंक...

सबकी अपनी एक उम्र होती है।

समझे हो !

 

अच्छा सुनो,

ये तस्वीर मैंने आज ही क्लिक की है

तुम्हारे घर के पीछे वाली मैन-रोड पर।

कल ठीक उसी समय फिर आऊँगी

मगर तुमसे मिलने नहीं,

इन दोनों वॉकिंग-पार्टनर्स को देखने।

मन करे तो तुम भी चले आना

शाम छह और साढ़े छह के बीच !

और हाँ,

तुमने आज किसी को

सीनियर सिटीज़न्स डे की शुभकामनाएं दी या नहीं !

 

तुम्हारी

मैं !




आहत होकर भी, चाहत नहीं छोड़ पाता !

 

 

ज़िंदगी कभी अजीब नहीं हुआ करती

बस....

जब वो हमारे पैमानों के मुताबिक़ नहीं होती

तो अजीब लगने लगती है।

वैसे भी ज़रूरतों का क्या ?

जब तक ज़िंदगी है,

तब तक ही तो ज़रूरतें हैं !

जिस दिन ज़िंदगी चुक जाती है

ज़रूरतें ख़ुद-ब-ख़ुद पूरी हो जाती हैं।

 

सखिया मेरी...

ये दूरी बड़ी भली है

नज़दीकियों के पास तो

यथार्थ का आईना होता है।

मगर दूरियाँ,

अपने साथ मरीचिकाओं के सुनहले सपने लेकर चलती हैं।

 

कितना सुकून है, इस ज़िंदगी में

कि दूर बैठकर हर दिन

तुम, मुझसे

मेरे ऑक्सी-मीटर की रीडिंग बुलवाती हो

और मैं, यंत्रवत सा

अपनी उँगलियों पर

एक मुलायम क्लिप को जकड़कर

टूँ टूँ की आवाज़ करते, रीडिंग बताते

एक अजीब से यंत्र की फोटो भेज देता हूँ।

कमाल है ना....

निन्यानवे, सत्तानवे, पंचानवे जैसे आंकड़ों ने

ज़िंदगी को आशा से भर रखा है।

 

कुछ लोग,

कभी नहीं चाहते

कि उनके आँसू दुनिया पर ज़ाहिर हों !

अजीब फ़ितरत होती है ऐसे लोगों की,

सुर्ख़ आँखें लिये

इधर-उधर देखा करते हैं।

रुलाई आ जाये

तो वॉश-रूम का पता पूछते हैं

धुले हुये चेहरे को, फिर-फिर धोते हैं

कभी अख़बार, तो कभी काले चश्मे से

अपने चेहरे को ढँक लिया करते हैं।

ये भी तो एक ज़िंदगी है

कि जो है

वो बस भीतर है

और बाहर सिर्फ़ एक सन्नाटा !

मगर मैं....

चाहकर भी इस तरह से नहीं जी पाता !

आहत होकर भी

अपनी चाहत नहीं छोड़ पाता !

 

कितनी बार कहा तुमसे

कि एक बार वीडियो कॉल करके

अपनी आँखें दिखा दो !

तुम ये क्यों नहीं समझ पाईं

दरअसल, आँखें तो मैं अपनी दिखाना चाहता हूँ

कि देख लो ना .....

मेरी आँखों की नमी को !

कि नमी का यूँ सूख जाना....अच्छा नहीं होता !!

 

मेरे हाथों की उँगलियाँ

जो तुम्हें हमेशा आर्टिस्टिक लगा करती हैं

अब उनके नीचे,

काली झाइयाँ उभरने लगी हैं।

मेरे हमदर्द कहते हैं

कि जिस हैंड-वॉश का

मैं दिन में दस बार इस्तेमाल करता हूँ 

... वो बहुत स्ट्रॉन्ग है !

लेकिन मेरे लिये तो

सबसे स्ट्रॉन्ग, बस तुम हो।

 

क्या ऐसा नहीं हो सकता ?

कि पी.पी.ई. किट पहनकर

किसी अलसभोर,

तुम मिलने चली आओ !

मैं उनींदा सोया रहूँ

और तुम, मुझे पुकार कर कहो

“देव,

अब तक क्यों सोये हो ?

याद नहीं, पिछली की पिछली बरसातों में

तुम पानी में भीगते हुये

मॉर्निंग-वॉक किया करते थे !”

इतना कहकर,

तुम मेरी हथेलियों को हाथों में लेकर

अपनी उँगलियों से सहलाओ

और तुम्हारे स्पर्श मात्र से

ये झाइयाँ गायब हो जाएँ।

मैं जागकर जब तक

अपने आपे में आऊँ

तब तक तुम चली जाओ !

और मेरे आस-पास

सिर्फ़ तुम्हारी ख़ुशबू बाक़ी रहे !!

 

तुम्हारा

देव




Thursday, 13 August 2020

कोई लॉक-डाउन, उमंगों के झूले को रोक पाया भला !



तुम कहती हो ना

कि हर देह की अपनी एक गंध हुआ करती है !

मुझे लगता है

कि वक़्त की भी एक सुगंध होती है

जो तब और मादक हो उठती है

जब वक़्त हमारे हाथों से जा चुका हो।

गुज़रा हुआ वक़्त,

लौट कर हमारे पास आया करता है।

.... और-और मादक होकर !

 

आज फिर एक सुगंध

मुझे कुछ याद दिलाने आई

अपने माज़ी को साथ लिए।

बचपन और कैशोर्य के बीच सिमटे

वो निकर पहनने के दिन !

कस्बे की सरहद,

सरहद पर किला। 

एक उथली सी नदी

नदी के इस पार एरन के पत्थरों से बना हनुमान मंदिर,

जिसे सब मठ कहा करते।

नदी के उस पार शीतला माता का मंदिर,

मंदिर के ठीक ऊपर कबीट के पेड़ की छांव।

वही कबीट....

जिसका नाम सुनकर

तुम पहले-पहल ज़ोर से खिलखिला उठी थीं

फिर मुझे डिक्शनरी में खोज कर

तुमको ये बताना पड़ा था

कि इसका एक नाम ‘वुड-एपल’ भी है।

 

पत्थर मार-मार कर कबीट तोड़ना

इस बात का भी ख़याल रखना

कि कहीं, कबीट सिर पर न गिर जाये

वरना गूमड़’ उभर आएगा।

माँ कबीट खाने से मना करतीं –

“मत खा बेटा

लक्कड़ खटाई है, नुकसान करेगी !”

और मैं...

पके हुये कबीट का

चॉकलेटी-पल्प उँगलियों से चाटता रहता।

शायद उन्हें चिढ़ाने के लिए

या ये जताने के लिए

कि मेरी देह नुकसान से परे है !

 

कॉलेज के दिन आए

मैं शहर चला आया।

यहाँ फिर कबीट दिखा

इस बार पेड़ पर नहीं, एक स्त्री के ठेले पर !

साबुत कबीट, बेर-जाली, पेमली बेर, कच्ची-पक्की इमलियाँ

और दो-तीन तरह की चटनियाँ

उनमें से एक चटनी कबीट की भी !

गुड़ और नमक को मिलाकर बनाई हुई चटनी,

जिसे वो पत्तों पर रखकर

चूरन के साथ दिया करती।

 

ज़ोर से पुकार लगाती, लयबद्ध तरीके से ठेला धकियाती

दशकों तक आती रही वो।

दीवाली के बाद से लेकर पूरी सर्दियों तक

हर रोज़ दुपहरी को आती।

 

साँवली, सुती हुई देह

तांबई से कुछ ज़्यादा गहरा रंग

जूड़ा बनाए, एक लट बाएँ गाल पर लटकती हुई

आँखों में गज़ब का विश्वास

और एक अजीब सा आकर्षण !

 

दशक बीते, वो आती रही

हमेशा वैसी ही दिखती

जैसी कि पहली बार नज़र आई थी।

मुझे देखकर एक निर्दोष-निश्छल मुस्कान देती

चाहे मैं उससे कुछ खरीदूँ या न खरीदूँ !

 

तुम सोचोगी

बावरा हो गया हूँ मैं

संदर्भों से परे बड़बड़ा रहा हूँ,

मगर कल बरसों बाद

मुझे एक कबीट का पेड़ दिखा

और मैं ....

फिर से ‘ट्रांस’ में चला गया !

अजीब सी मादक गंध तारी हो गयी मुझ पर।

 

कितने अनूठे हैं ये दिन ....

चीनी मिट्टी की बरनियों में

नया अचार डाले जाने के दिन !

पेड़ की मोटी शाखों पर

सावन के झूलों के दिन !!

तुमसे दूर बैठकर

तुमको शिद्दत से जीने के दिन !!!

 

जाना मेरी,

कभी कोई लॉक-डाउन

उमंगों के झूले को रोक पाया है भला ?

आओ मेरे पास !

ख़यालों की शाख पर,

हसरतों का झूला डाला है मैंने इसबार सावन में। 

बैठो इस झूले पर

मैं तुम्हें झूला झुलाऊँ।

 

तुम्हारा

देव