कितनी संक्षिप्त
लेकिन कितनी रसीली बातें......
-“मेरा क्या;
मैं तो बस बरसाती झरना हूँ !”
-“बरसाती झरने बड़े खूबसूरत और अल्हड़ होते हैं;
पूरे सालभर का इंतज़ार जुड़ा होता है इनसे !”
-“लेखक हो ना !
बातों को ज़्यादा गहराई से सोचते हो।”
-“और तुम...
तुम तो मुझसे भी ज़्यादा गहरी हो;
बस, ज़ाहिर नहीं
करतीं।”
मेरी बात सुनकर
बस एक नज़रभर देखा था तुमने
और चली गयी थीं।
लेकिन मैं वहीं रह गया ...
तुम्हारे शब्दों की गूंज को थामे हुये !
ऐसा क्यूँ होता है
कि जब हम बिलकुल खाली और निस्पृह हो जाते हैं
ठीक उसी पल ....
हम किसी के लिए संसार बन जाते हैं !
कि जब हमारे पास देने के लिए कुछ नहीं होता
तब हम यकायक,
ख़ज़ाने में तब्दील हो जाते हैं।
मेरे पास है ही क्या ?
सिवा तुम्हारे...... !!
जो लोग,
मेरे पास आकर
मुझसे मिलकर खुश होते हैं।
दरअसल वो नहीं जानते
कि वो मुझसे नहीं
तुमसे मिल रहे होते हैं।
मुझमें .... तुम !!
“जहाँ हो, वहीं बहुत अच्छे
कथित पद और प्रतिष्ठा की दौड़ में
व्यर्थ ही उलझ रहे हो
रुक क्यों नहीं जाते देव !
जो तुममें है वो सबसे अलग है
और मुझे तुमसे प्यार है।”
उस रात,
तुम्हारी ये बातें सुनकर
मैं इतना बोझ-रहित हो गया था
कि जैसे,
पानी की सतह पर लेटा हुआ
.....कोई योगी !!!
ओ बिखरी हुई ज़ुल्फों
और गालों पर गड्ढों वाली .....
बहुत दूर से देखा करता हूँ
तुमको और तुम्हारी मसरूफ़ियतों को !
फिर अनायास इठलाने लगता हूँ।
.....अपने-आप पर !
कोई अब का नहीं
ये तो तब का प्यार है
पहले-पहल जब
अल्हड़ उम्र में तुमको देखा था।
आज फिर मुझे
उस फ़कीर की याद आ रही है
मेरे बचपन के दिनों वाला वो फ़कीर
जो एक हाथ में काली छतरी
और दूसरे हाथ में
हरा लालटेन थामे हुये
भीगी, अंधेरी, बियाबान रातों में
पूरे सावन भर
‘बारहमासा’ गाते हुये निकलता
था।
“सावन कहे सुन सांवरी
चहुं ओर चमके बीजरी,
घनघोर सुनकर मोर बोलां
और झिंगारत झिंगुरी ॥
भादों अंधेरी रैन में
नदियां बहें असरारजी,
प्रीतम मेरा पलटा नहीं
परदेस छाई छावनी ॥”
उफ़्फ़.....
अब तो लोग ‘बारहमासा’ को भी भूलने लगे
वो दिन नहीं रहे
मगर उनकी यादें मुझमें ज़िंदा हैं।
सुनो....
एक ख़्वाहिश है मेरी
इस सावन में
मैं भी फ़कीर का भेस बनाकर
किसी भीगी हुई रात
तुम्हारी खिड़की तले
‘बारहमासा’ गाते हुये गुज़रना
चाहता हूँ।
तुम बस एक बार
नीचे झाँककर मुस्कुरा देना !!
एक सूखा हुआ बंजर बीज
फिर से अंकुरित हो जाएगा।
सच.... !!
तुम्हारा
देव
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