दो क़ब्रें,
दो दफ़न हो चुके जिस्म।
पता नहीं
उनकी रूहें अब यहाँ हैं
या कहीं बहुत दूर चली गयीं।
मगर कमाल तो देखो
ये क़ब्रें ....
हर साल बुलाती हैं
लाखों धड़कते दिलों को
...अपने पास !
कारण वही शाश्वत
.... प्रेम !!!
आज मुझे फिर
वो शेर याद आ गया
जिसे पिताजी सुनाया करते थे।
“सैर कर दुनिया की गाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहाँ
ज़िंदगानी गर रहे तो, नौजवानी फिर कहाँ । ”
नहीं जानता किसने लिखा इसे
लेकिन जब-जब पिताजी इस शेर को सुनाते
तब-तब उनकी आँखों में
एक चमक उभर आती।
थोड़ी देर होते न होते
एक अजीब सी उदासी तैरने लगती।
फिर जाने कहाँ खो जाते;
अपने आँसुओं पर बाँध बनाते हुये
एक-एक शब्द को मुक्ति देते से कहते
“यार बाबू,
मज़ा नहीं आया ज़िंदगी का।”
मैं अचकचा जाता
सोचता,
सबकुछ तो है इनके पास
फिर क्यों कहा करते हैं ऐसा !
आज जब तुमने
ताजमहल के अंदर से
इन दो प्रेमिल कब्रों की तस्वीर ले भेजी;
तो किसी ने फेंट दिया
भीतर तक मुझे,
ताश की गड्डी बनाकर !
सुनो....
ऐसा ही हो गया हूँ अब मैं,
थोड़ा रूखा, थोड़ा सूखा।
लाख कहने पर भी
तुम्हारे साथ घूमने नहीं आया,
शायद मन का कोई कोना
दब्बू और अंतर्मुखी होने लगा है अब !
बाहर निकलता हूँ
तो लगता है
कि कोई मेरे चहरे में,
तुमको न देख ले।
कि कोई मेरे शब्दों में,
तुमको न सुन ले।
किसी ने अगर
मुझमें तुम्हें देख लिया
तो क्या होगा ?
उफ़्फ़
मैं क्या करूँ खुद का
तुम्हीं कुछ बताओ लड़की।
पता है
अब मेरा मन हो रहा है
कि मनुहार करके तुमको
अपने साथ ताजमहल की सैर पर ले चलूँ।
तुम्हारा हाथ थामे
अपनी साँसें रोक कर
इन दोनों क़ब्रों के पास
निश्चल खड़ा हो जाऊँ।
और फिर तुम्हें लेकर
फतेहपुर सीकरी जाऊँ।
उस लड़के को खोजूँ,
जिसने बुलंद दरवाज़े पर खड़े होकर
तुम्हारे हुस्न की तारीफ़ में शेर पढ़े थे।
दस रुपयों में, पूरे बीस शेर !
और जब...
लौटकर मैं वापस घर आऊँ
तो अपने उम्रदराज़ पिता के
बयासी साल पुराने कानों में
चिल्लाकर कहूँ
“ देखो ना पापा
मैं सैर करके लौटा हूँ
अपने घर वापस !”
प्रिया मेरी
कह दो न एक बार
कि फिर से चमक उठेंगी
वो बूढ़ी आँखें !
अरसा हुआ
वो चमक नहीं देखी !!
तुम्हारा
देव
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