Thursday, 12 November 2015

पता नहीं क्यों.... शायद, मुक्ति की चाहत !!!




रात गहरा रही है
यही बारह के बाद कोई चालीस मिनिट ऊपर
नवम्बर का महीना
चाँद फिर छोटा होने लगा है
सुबह-सुबह ठिठुरन होती है
फिर भी जाने क्यों
रातों को अजीब सी गर्मी लगा करती है।
लगभग रोज़ ही एयर-कंडीशनर चला लेता हूँ।  

इन दिनों कुछ अजीब सा हो रहा है।
मन ठहर नहीं पाता
सबसे उठने लगा है।
ज़रा सी आहट
आशंकाओं से भर देती है।

कभी-कभी निढाल सा हो जाता हूँ
न कुछ बोलता हूँ
न ही कुछ सोच पाता हूँ।
बस घंटों तकता रहता हूँ
कभी छत,
तो कभी फर्श को।
पता नहीं क्यों....
शायद, मुक्ति की चाहत !!!

मुक्ति भी लगता है,
कि बस एक शब्द भर है
असल में ऐसे किसी भाव का
कोई अस्तित्व ही नहीं !

जो रिश्ते,
हम बनाते हैं।
जिन सम्बन्धों से,
हम बंधते हैं।
क्या उनसे कभी मुक्त हो पाते हैं ?
बस एक नाम है मुक्ति !
कभी देह को छोड़कर
तो कभी सम्बन्धों को तोड़कर,
हम सोच लेते हैं
कि मुक्ति मिल गयी।  
मगर नहीं.....
कोई एक,
हमेशा घुटता रहता है
घुट्टी की तरह
बूंद-बूंद आँसू के साथ
खुद को घिस-घिस कर।

लगता है,
जैसे यही सब बातें
मैं तुमसे पहले भी कर चुका हूँ
बहुत पहले....
बहुत-बहुत पहले।
पर अब याद नहीं आ रहा
कि कौन से काल में
किस अवस्था में
कैसी देह को धारण कर
की थीं मैंने;
तुमसे ये सारी बातें !

सच्ची-सच्ची बोलूँ ?
अब मैं अपने मन की बातें
बहुत कम कर पाता हूँ
किसी से भी .... !

देह से जहाँ पर होता हूँ,
मन से वहाँ नहीं रह पाता। 
बहुत सारे लोगों से घिरा हुआ मैं !
ये कहने में हर बार झिझक जाता हूँ,
कि तुम जो कहा करते हो
वो कभी कर नहीं पाते। 
और जो मैं महसूसता हूँ
उसका दावा नहीं करता।

सूखी आँखों वाली
... वो लड़की !!!
दिन में तीन बार दवा डाला करती है
अपनी आँखों में नमी लाने के लिए
उसके आँसू देखकर
चश्मेवाला बच्चा
रोया करता है ज़ार-ज़ार।
चाहकर भी मुक्ति नहीं मिल पाती
सूखे नयनों में भी
सहेजनी पड़ती है नमी !!!

जानता हूँ ...
मायने नहीं रखता
मेरा इस तरह महसूसना
मगर तब भी ... !

साल ग्यारह सीढ़ियाँ चढ़ चुका है
उम्र ने एक और ढलान देख लिया
पंखे की आवाज़
और घड़ी कि टिक-टिक 
अजीब सा वातावरण बना रहे हैं
देखो मैं फिर से बंध रहा हूँ 
सोच के जाने कैसे-कैसे बंधनों में
मुक्ति कहाँ मिल पाती है ?
बस मुक्ति की चाहत,
और मुक्ति की बातें,
किया करते हैं हम
....अक्सर !

तुम्हारा


देव 

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