एक सुई
सी चुभती है
कनपटी
के ऊपर .....
दिमाग
में कहीं।
उबकाई
आती है
एक के
बाद एक
कई सूखी
उबकाइयाँ !!!
जंज़ीर, सलाखें और
रस्सियों जैसे शब्द
कागज
पे लिख कर काटने लगता हूँ।
और तब
तक काटता रहता हूँ
जब तक
कि कागज़.....
....फट
न जाये !
उधर
खिड़की से बाहर झाँकता हूँ
तो एक
बचपन दिखाई देता है।
जिसके
हाथ रस्सी से बंधे हुये हैं।
और
उस बचपन
के पीछे चीखते दो स्त्री-पुरुष
शायद
माँ-बाप !
चिल्लाते
हुए
कि
“बेटा
देख
सपनों
की तिजोरी की चाभी
इस ‘गुच्छे’ में है
ढूँढ
उस चाभी को
खेल-कूद
तो बाद में भी होता रहेगा।”
उठता
हूँ
कम्प्युटर
ऑन करता हूँ
लेकिन
इंटरनेट
कनेक्ट नहीं हो पाता
खीजता
हूँ
सम्मोहित
सा
प्लग
की ओर हाथ ले जाता हूँ
प्लग
को थोड़ा सा बाहर खींच कर
नंगी
उंगली से पिन को छू कर देखता हूँ।
करंट
लगता है
बिलबिला
उठता हूँ
और वापिस
इस दुनिया में लौट आता हूँ
ये दुनिया.....
जो मुझे
‘by birth’ मिली है
‘by choice’ नहीं !
वैसे
भी
अब कोई
choice नहीं मेरी।
स्वाद
बचा रखे हैं मैंने कुछ
बहुत
पुराने !
अतीत
में उतरता हूँ
किसी
एक स्वाद का आह्वान करता हूँ
उसका
आस्वादन करता हूँ
और लौट
आता हूँ फिर
वर्तमान
में।
प्रेम
और विचार
दोनों
की हत्या हो रही है
और कमाल
ये
कि
उनकी
राख का उपयोग
मसाले
के रूप में हो रहा है।
चटखारे
लेने के लिये।
और मैं
...
हतप्रभ
हूँ।
हाँ,
तुम्हारा
देव हतप्रभ है प्रिये।
तुम
अपनी बेचैनियों के साथ भटक रही हो।
और मुझे,
मेरी
भटकन बेचैन कर रही है।
शायद
इसीलिये है,
हम दोनों
के बीच
इतनी
मज़बूत प्रीत की रस्सी।
इस रस्सी
के मुहाने पर
बालटी
बांधकर
उलीचते
रहेंगे
दर्द
के कुए से
थोड़ा-थोड़ा
पानी।
सींचते
रहेंगे
अपनी
साँसों को !
सुनो
अभी-अभी
गालिब की आवाज़ आई
कानों
में मेरे
“मुझे
क्या बुरा था मरना
अगर एक बार होता !”
मुझे
माफ करना,
जाने
क्या हो गया है आज रात।
कल जब
सो कर उठूँगा
तब शायद
थोड़ा
खुश और अलग दिखूँ !
कभी
खुद से दूर मत करना
तुम्हारा
देव
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