Thursday, 24 September 2015

देबू, एटा ओनेक बेशी हुये जाबे एक्टू कोम कोर......


अपने ऊपर का सारा बोझ उतार देता हूँ
जब-जब तुम्हें कोई ख़त लिखता हूँ।
हर उभरते शब्द के साथ
सुलझती जाती हैं
........मेरी सलवटें !
मानो,
करीने से तह लगा रही हो तुम।

व्यवस्थित होता जाता हूँ मैं,
फिर से अस्त-व्यस्त होने के लिए।
यही तो है ज़िन्दगी
कोयलिया मेरी।

हरसिंगार के उबले हुये पत्तों का पानी,
जो पिछली गर्मियों में छोड़ दिया था
फिर से पीने लगा हूँ।

लाख कोशिशों के बाद भी
मैं गलतियों से नहीं बच पाता
और हर गलती के बाद
ख़ुद से खफ़ा हो जाता हूँ।
जाने क्यों हूँ मैं ऐसा !!!

पत्तियाँ तोड़ने गया
पत्तियों के संग फूल तोड़ लाया
वो भी रात दस बजे के बाद !
आकर देखा
तो कुछ कच्ची कलियाँ भी साथ चली आईं थीं।
बस...
ग्लानि के भंवर में
गोल-गोल घूमे लगा।
सोचा
अब कैसे और क्या मुँह दिखाऊँगा तुम्हें।
फिर एक खयाल आया और मैं हँस पड़ा
लगा,
जैसे दूर बैठकर तुम कह रही हो...

“देबू,
एटा ओनेक बेशी हुये जाबे
एक्टू कोम कोर .......
ओ देव,
ये बहुत ज़्यादा हो जाएगा
थोड़ा कम करो
इतना सोचना अच्छा नहीं।”

सच कहूँ तो
बड़ा सजग रहता हूँ
कि कहीं कुछ ज़्यादा न हो जाये।
मेरी चाहतें, मेरी नफ़रतें
मेरे संशय, मेरी ख्वाहिशें
सबको सीमित करने में लगा रहता हूँ सखी।
तब भी ....
मगर तब भी,
हर बार !
... कोई न कोई गलती कर बैठता हूँ।
शायद मुतमइन रहता हूँ
कि तुम निकाल लोगी मुझे।
इसीलिए,
तलाश लिया करता हूँ
एक नया भँवर
मैं...
अपने लिए !


पिछले इतवार की सुबह
केनेडा वाले उस दोस्त का फोन आया
जिसने पैंसठ की उम्र में ड्रायविंग-लायसेंस की परीक्षा पास की।
बड़ा खुश था वो।
कहने लगा...
सड़क पर सुनहरे बालों वाली एक हसीन युवती ने
हाथ हिलाकर, मुस्कुराते हुये उसका अभिवादन किया।
वो कुछ समझ पाता
इसके पहले ही
युवती चली गयी
हवा की रफ़्तार से !
मगर मेरा दोस्त बहुत खुश था
उस हसीन एहसास के साथ।

और मैं....
सिहर गया।
एक पल को लगा,
कहीं तुम तो नहीं थीं वो?
हाSSS
कैसे-कैसे ख़यालों के भँवर.....
पड़ते हैं मेरे मन में।

मेरा जी करता है
कि हर ख़याल से तुम्हारी तस्वीर बना दूँ
मगर क्या करूँ
मुझे तो ब्रश थामना भी नहीं आता।  
याद है,
पिछली मुलाक़ात में तुम बोली थीं
“बड़े बतबने हो देव,
बातें बनाना कोई तुमसे सीखे।”


सुनो संगिनी,
मुझे तो बोलना भी नहीं आता था
जब से तुम मुझमें उतरीं
तबसे मैं बतबना हो गया।
खुद अचरज में हूँ
कि कैसे?
हाँ,
उन कलियों के टूट जाने का दर्द
कुछ कम हो चला है।
भरोसा है,
कि जल्द ही
कोई नयी कली आएगी उस जगह
फूल बनने के लिए।
है ना .......

तुम्हारा

देव






























Friday, 18 September 2015

मन के मिलन के लिए एफ़िडेविट की ज़रूरत कब हुयी भला ?





देव ....
कैसे हो ?
बारिश बंद हुई जब से ....
तबसे मैंने ब्रिस्क-वॉकिंग फिर शुरू कर दी है।
हर रोज़ जाती हूँ,
यूनिवर्सिटी गार्डन में ...
जंगल के रास्ते !

कभी सुबह शॉल लेकर
तो कभी शाम को ..... सन-ग्लासेस लगाकर।
पूछोगे नहीं क्यों ?
अपने भावों को भीतर सहेजना नहीं आता मुझे
मेरा चेहरा चुगली कर देता है,
ख़ुद अपनी ही ....
.... इसलिए !

उस दिन गोल चक्कर पर
तेज़-तेज़ चलते हुए
मैं अचानक ठिठक गयी।
एक शख़्स दिखा मुझे
बिलकुल तुम जैसा ....
ऐनक लगाये।
उसके भी पैर में तकलीफ थी।
जाने क्या हुआ,
निगाह नहीं हटा पायी मैं उससे।
फिर ख़ुद को टोका
चिकोटी काट कर
लगा....
जाने क्या सोच लेगा वो
मेरे बारे में !
मगर वो तो खोया था,
ख़ुद ही में कहीं।
मुझ पर रत्ती भर ध्यान नहीं था उसका।
तभी एक लड़की उसके पास आई,
बड़ी ज़हीन, नफ़ीस सी
उसे हाथ का सहारा देकर उठाया
अपने कंधे पर उस शख़्स का हाथ रखा  
फिर ले चली उसे,
अपने साथ !

और अभी परसों......
सुबह जल्दबाज़ी में
शॉल लेना भूल गयी
हवा ठंडी थी,
रही-सही कसर मेरे स्लीव-लेस टॉप ने पूरी कर दी।
दोनों कोहनियाँ बाँध कर ठिठुरन से बच रही थी
कि तभी
.... तुम आ गए।
जाने कैसे और कहाँ से !!
हाथों में दुशाला लिए।
डार्क-ब्लू शर्ट और ऑफ-व्हाइट पतलून पहने
बिलकुल वैसे  
जैसे तुम इन दिनों अपनी WhatsApp प्रोफ़ाइल-पिक में दिखते हो।  
मेरे करीब आकर तुमने
वो दुशाला हौले से मेरे काँधों पर लपेटा
फिर धीरे से पूछा
“ अब ठीक है !”
और बस .....
फिर जाने कहाँ चले गए तुम !

पता है देव,
उस एक पल ने मुझे
ख़ुद से निकाल कर
तुम में पिरो दिया।

ऐसा लगा जैसे
एक अलौकिक हवा
मेरे चेहरे पर फूँक मार कर
मुझे नया कर गयी।
.... बिलकुल नया !

सैकड़ों किलोमीटर दूर बैठकर भी
तुम्हारे अहसास भर से,
मेरे दिल को जाने क्या हो जाता है।
अजीब सा धड़कने लगता है
जिसे बताने को शब्द नहीं हैं
...मेरे पास !!!

क्यों नहीं समझ पाते कभी-कभी
मुझको, तुम !
देव मेरे,
मन के मिलन के लिए एफ़िडेविट की ज़रूरत कब हुयी भला?
और प्रेम की भाषा तो शब्द-विहीन है रे पीहू
फिर संशय क्यों ले आते हो
बार-बार तुम !!
कहो?

तुम्हारी

मैं !


Friday, 11 September 2015

तुम्हीं कहती हो न..... कि शरीर भी आत्मा की परीक्षा लेता है






कुछ कहूँ तुमसे ......
कभी-कभी मेरी हालत उस धरती जैसी हो जाती है
जिसने बरसों से पानी नहीं चखा !!!
हाँ,
मैं बंजर हो जाता हूँ प्रिये.... कभी-कभी !
छटपटाता हूँ,
बे-सबब फिरता हूँ यहाँ-वहाँ।
मगर बाहर नहीं निकाल पाता,
अपने भीतर घुमड़ते भावों को।

तुम उस दिन बोली थी ना...
कि,
“मुझे परियों से बातें करना पसंद है।”
यक़ीन मानो,
मुझे तब कोई अचरज नहीं हुआ था
उलटे मैंने तो कल्पना कर ली थी
सुनहरे लंबे इकलौते पंख के सहारे उड़ रही हो तुम
पूरी धरती का चक्कर लगाने के लिए।
उफ़्फ़ .....

एक बात कहूँ,
तुम्हें क्या पसंद है ये तो तुमने कह दिया
मगर मुझसे क्यों नहीं पूछा कभी
कि मैं क्या चाहता हूँ !
मैं ....
सिर्फ प्यार करना चाहता हूँ
... तुमसे प्यार !!!



वो कविता
जो लिख रही हो तुम
पिछले कई जन्मों से !
और लिखते रहना चाहती हो अभी अगले कई जन्मों तक !
उस कविता को,
इसी जीवन में पूरी कर  दो न !
अधूरा रहने की, तुम्हारी ये कैसी ज़िद है सखी।
मैं अब पूर्ण होना चाहता हूँ
.... तुम्हारे साथ !!!
ये रंग,ये रूप, ये नाम, ये शरीर
हर बार बदल जाता है।
कहाँ रह पाता, सबकुछ वैसा ही !
फिर क्यों न अभी, इसी पल
.... एक दूसरे को जी लें ।

आँखें खोल कर देखें एक दूसरे को
लगातार ....
इतनी देर तक देखा करें
कि पथरा जाएँ हमारी आँखें
और आँसू झरने लगें इनसे !
फिर अचानक,
पलकें बंद कर लें
और इतनी देर तक पलकों को बंद रखें,
कि देखने वाले भी हमें निर्जीव मान लें।
आओ....
ऐसे जी लें हम-तुम
... एक दूसरे को ।

अब और बर्दाश्त नहीं होता
ये सूख कर चटकता,
पथरीला बंजरपन !


सुनो ....
ये वक़्त भी गुज़र जायेगा।
तुम्हीं कहती हो न
कि शरीर भी आत्मा की परीक्षा लेता है।
शायद मेरे लिए भी
कुछ ऐसी ही घड़ी है ये
.... परीक्षा की घड़ी।

तस्वीर नहीं भेजना चाहता था मैं अपनी
तुम्हारी ज़िद ने लेकिन, मजबूर कर दिया।
लेटा भी रहूँ, तो कब तक भला
बिस्तर पर यूं ही।
हाँ,
अब पानी ज़्यादा पी रहा हूँ
होठों का सूखापन कुछ कम हो रहा है।

आज सुबह कुछ अजीब हुआ
ऐसा लगा ....
जैसे किसी ने आवाज़ दी
बिस्तर पर लेटे-लेटे बाहर देखा
तो तुम्हारा सूरज खड़ा था।
मुझे पुकारता
नन्हा सा,
कोमल प्रकाश वाला,
नवजात सूरज !
मानो कह रहा हो
“देव,
हर बार उदित होने के लिए
अंधकार से गुज़रता हूँ
देखो मुझे,
मैं रात में नहीं था
और अब फिर से आ गया हूँ
तुम्हारे पास !”

सुनो प्यारिया.....
मैं भी उगना चाहता हूँ
इस सूरज की तरह।  
फिर से,
नवजात बनकर;
निर्दोष होकर।
कह दो कि ऐसा होगा
जल्द से जल्द !

तुम्हारा

देव









Thursday, 3 September 2015

जाने क्या हो गया है मुझको !





एक सुई सी चुभती है
कनपटी के ऊपर .....
दिमाग में कहीं।
उबकाई आती है
एक के बाद एक
कई सूखी उबकाइयाँ !!!

जंज़ीर, सलाखें और रस्सियों जैसे शब्द
कागज पे लिख कर काटने लगता हूँ।
और तब तक काटता रहता हूँ
जब तक कि कागज़.....
....फट न जाये !


उधर खिड़की से बाहर झाँकता हूँ
तो एक बचपन दिखाई देता है।
जिसके हाथ रस्सी से बंधे हुये हैं।
और
उस बचपन के पीछे चीखते दो स्त्री-पुरुष
शायद माँ-बाप !
चिल्लाते हुए
कि
“बेटा देख
सपनों की तिजोरी की चाभी
इस गुच्छे में है
ढूँढ उस चाभी को
खेल-कूद तो बाद में भी होता रहेगा।”


उठता हूँ
कम्प्युटर ऑन करता हूँ
लेकिन
इंटरनेट कनेक्ट नहीं हो पाता
खीजता हूँ
सम्मोहित सा
प्लग की ओर हाथ ले जाता हूँ
प्लग को थोड़ा सा बाहर खींच कर
नंगी उंगली से पिन को छू कर देखता हूँ।
करंट लगता है
बिलबिला उठता हूँ
और वापिस इस दुनिया में लौट आता हूँ
ये दुनिया.....
जो मुझे ‘by birth’ मिली है
‘by choice’ नहीं !

वैसे भी
अब कोई choice नहीं मेरी।
स्वाद बचा रखे हैं मैंने कुछ
बहुत पुराने !
अतीत में उतरता हूँ
किसी एक स्वाद का आह्वान करता हूँ
उसका आस्वादन करता हूँ
और लौट आता हूँ फिर
वर्तमान में।

प्रेम और विचार
दोनों की हत्या हो रही है
और कमाल ये
कि
उनकी राख का उपयोग
मसाले के रूप में हो रहा है।
चटखारे लेने के लिये।


और मैं ...
हतप्रभ हूँ।
हाँ,
तुम्हारा देव हतप्रभ है प्रिये।
तुम अपनी बेचैनियों के साथ भटक रही हो।
और मुझे,
मेरी भटकन बेचैन कर रही है।
शायद इसीलिये है,
हम दोनों के बीच
इतनी मज़बूत प्रीत की रस्सी।
इस रस्सी के मुहाने पर
बालटी बांधकर
उलीचते रहेंगे
दर्द के कुए से
थोड़ा-थोड़ा पानी।
सींचते रहेंगे
अपनी साँसों को !

सुनो
अभी-अभी गालिब की आवाज़ आई  
कानों में मेरे
“मुझे क्या बुरा था मरना
 अगर एक बार होता !”

मुझे माफ करना,
जाने क्या हो गया है आज रात।
कल जब सो कर उठूँगा
तब शायद
थोड़ा खुश और अलग दिखूँ !
कभी खुद से दूर मत करना

तुम्हारा

देव