Thursday 7 May 2015

मैं बूढ़ा होना चाहता हूँ सखी !!






बड़ा विचित्र है ये दौर....
पैदा होने से पहले बीमा कराने,
और भरी जवानी में पेंशन-प्लान लेने का दौर !
खुद को एलियन समझने लगा हूँ मैं अब
...अपने ही लोगों और अपने ही शहर में।

पूरा बचपन नदी, नालों, खेतों और पहाड़ों के बीच गुज़ार कर भी
मैं कभी उनको समझ नहीं पाया।
जाने कौन सा पल था वो
जिसने मुझे जंगल से निकाल कर बाज़ार में धकेल दिया।
आज तक हतप्रभ हूँ
मगर ये जान गया हूँ
कि प्रकृति न्याय करती है
...मृत्युदंड देकर भी !
और बाज़ार हमेशा ज़िंदा रखता है
तिल-तिल मारने के लिए।

सुनो ओ सखी....
कैसे कहूँ कि
तुम किसी गैर को चाहोगी तो मुश्किल होगी।
मैं तो कहूँगा,
कि मुझे चाहो या किसी गैर को !
अगर चाहो तो टूट कर चाहना,
नहीं तो यूँ ही बुत बनी रहना,
लोग पूजने लगेंगे तुम्हें।

अटपटी लग रही हैं न मेरी बातें ?
ये बाज़ार और प्रकृति की बातें !
ये चाहत की बातें !!
दरअसल आज सुबह-सुबह छह बजे ही नहा लिया ।
सात बजते न बजते भूख लग आयी।
सो कलेवा तलाशते हुये बड़ी दूर निकल आया।
एक अनजान-सुनसान रेस्टोरेन्ट में।
वहीं पास के मंदिर में एक पुजारी को देखा
देखते ही जैसे भूख मिट गयी।

तुम्हें दिल की बात बतानी है
किसी से कहना मत,
मैंने भी अपना फ़्यूचर प्लान कर लिया है
चाहता हूँ
कि,
बीस बरस बाद मैं भी किसी सुनसान जगह पर
पीपल, बड़ और नीम की त्रिवेणी के नीचे एक मंदिर बनाऊँ।
मंदिर जिसमें कोई मूरत न हो।
मगर उसका आकार ऐसा हो
कि देखने वाले को वो बस एक मंदिर लगे।

वहाँ पर मैं अपनी सफेदी को ओढ़े हुए
हर सुबह होठों से कुछ बुदबुदाऊँ.....
जाप जैसा !!

हर दोपहर परदा खींच दूँ
और भावों ही भावों में तुमसे मिलने आ जाऊँ।
संध्या को फिर से
दीप जला कर शंख पर हाथ फेरूँ,
चाहे उसे बजा न पाऊँ।
रातों को फिर तुम्हारे ख़याल की चादर ताने गहरी नींद सो जाऊँ
अगले दिन की पूजा,
अगले दिन के मिलन के इंतज़ार में 

मैं बूढ़ा होना चाहता हूँ सखी,
अपने फ़्यूचर-प्लान को जल्द से जल्द पूरा होते देखने के लिए।
सही नहीं जाती अब, ये बेक़रारी ख़यालों की।


तुम्हारा


देव 

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