Thursday, 28 May 2015

तुम्हारा कोई अंश है वो...






वो बिलकुल तुम्हारी तरह है
कभी-कभी ऐनक लगाती है
ठोड़ी पर उभरा हुआ मोटा तिल
तराशे हुये होंठ
और चेहरे की बनावट ऐसी.....
कि चाहकर भी किसी से तुलना न कर सको !

यकीन करोगी....
उसको पहली बार देखा तो लगा
तुमसे अलग हुआ तुम्हारा कोई अंश है वो।
फर्क सिर्फ इतना,
कि तुम प्यार पर कम से कम बात करती हो;
और वो सिर्फ अपने प्यार की ही बातें किया करती है।

वो...
जिसने कभी बड़ी बेरुखी से अपने प्यार को ठुकरा दिया था।

“करती भी तो क्या देव ?
घर की सबसे बड़ी बेटी
और पिता दिल के मरीज़ !”

“फिर क्या हुआ ?”
मैंने उससे पूछा

“क्या होना था !
हफ़्ते भर के अंदर वो चला गया वहाँ से।”

“कहाँ से ?
हठात मेरे मुंह से निकल पड़ा

“उस कॉलेज से
जहाँ वो कम्प्युटर-साइन्स पढ़ाता था
और मैं फ़ाइनल-इयर की स्टूडेंट थी।”

“उसके बाद ?
न चाहते हुये भी मैं बोल उठा।

वो हँस पड़ी।
“ उसके बाद...
उसके बाद ज़िंदगी ज़िंदगी कहाँ रह गयी।
मुझ में जो कुछ ज़िंदा था
वो उसके साथ चला गया
और मैं...
निर्जीव, निढाल सी रह गयी।”

मैं उसे दिलासा देता रहा
वो शून्य में संसार खोजती रही
फिर धीरे से बोली

“फागुन बीते,
सावन बीते,
मगर मैं वहीं पर थिर गयी  
जहाँ वो छोड़ गया था।
मेरा दर्द एक सहेली से देखा न गया
जाने कैसे वो उसका मोबाइल नंबर खोज लायी।
मैंने फड़फड़ाती धड़कनों को भींच कर उसे फोन किया
फिर एक बार, दो बार, तीन बार….
जाने कितनी बार कहा कि मुझे तुमसे प्यार है।
बे-इंतिहा प्यार !!
और वो...
बार-बार यही पूछता रहा
कि आप कौन...
मुझे आपकी आवाज़ ठीक से सुनाई नहीं दे रही।
सुनाई भी कैसे देती ?
वो मंदिर में था
और वहाँ सिर्फ घण्टियों की आवाज़
और मंत्रों के अस्पष्ट स्वर गूँज रहे थे।
जिन्हें मैं अपने सूने घर के अकेले कोने में बैठकर
बड़ी आसानी से सुन पा रही थी।”

अचानक उसकी आँखों में निर्लिप्तता की परत उभरने लगी
वो फिर बोली....

“पता है देव
उसकी शादी हो चुकी है
और मैं जानती हूँ कि मैं उसका पहला प्यार हूँ
वो भटक गया
तो प्यार की रुसवाई होगी
इसलिए मैंने मेरे मोबाइल की सिम तोड़ कर फेंक दी
ईमेल एड्रैस भी बदल दिया
और वो शहर भी छोड़ दिया
सिर्फ उसके लिए
वही मेरा पहला और आखिरी प्यार जो है।”

थमी रही वो कुछ देर !
मिट्टी की गगरी जैसे जल को सहेजे हुये।  
और फिर टूट कर फैल गयी,
मैंने देखा,
मेरे चारों ओर नमी को छटपटाते हुये !

गहरी साँस लेकर वो फिर बोली

“जानते हो देव,
मैं तुमसे इतनी बातें क्यों करती हूँ ?
क्योंकि तुम्हारे ख़त मुझे उसके संसार में ले जाते हैं।
जहाँ मैं उससे मिलती हूँ
ख़ुद को भूल कर।
मेरा बहुत मन करता है
कि मैं तुम्हारे ख़त के जवाब दूँ
और वो कैसे भी उन जवाबों को पढ़ ले
मुझे यकीन है
वो समझ जाएगा कि ये मैं हूँ
उसकी मैं.....
सिर्फ उसकी !!!”


देखो तो सखी
कैसे – कैसे रूप हैं इस प्रेम के ।
वो तो हमेशा की तरह मुस्कुरा रही है
मगर मुझ पर उदासी तारी है
अजीब सी सुकून भरी उदासी।
हुः
खैर !

तुम्हारा

देव



Thursday, 21 May 2015

चलो हम-तुम बन जाएँ दूसरे....








कुछ ख़ुद को बिंदास दिखाते हैं,
कुछ स्वीकार नहीं पाते हैं,
कुछ अंदर ही अंदर कुम्हलाते हैं,
कुछ बेस्वाद बताते हैं,
और कुछ समझ नहीं पाते हैं।
लेकिन ये सच है
कि रिश्ते बहुधा बासी हो जाते हैं।
कोई संकरी गली खोजता है
तो कोई राजमार्ग की और दौड़ता है।
किसी से बचने के लिए,
या फिर खुद से छिपने के लिए !

तुम्हें एक्सप्लोर करने का बड़ा शौक है न
और मुझे तुम्हारे ख़यालों में रहने का !
तुम जिसे यात्रा कहती हो
मेरे लिए वो लिए वो मंज़िल है।

जिसे जैसा भाया
उसने वही नाम दे डाला
हाँ ये तय है
कि पहली – पहली बार
इसमें जो उमंग, जो अनुभूति और आकर्षण रहता है
उसकी किसी से तुलना नहीं ....
और यदि तुलना है तो सिर्फ दिव्य से।
कि पा लिया हो सैंकड़ों स्वर्ग का सुख।
कि मिल गया हो ईश्वर का सानिध्य !
हाँ कुछ-कुछ ऐसा ही होता है
पहली-पहली बार।
और फिर धीरे-धीरे
कम होने लगती है छटपटाहट
भोथरी होती जाती है सारी संवेदनाएँ
बस एक एहसास बाक़ी रहता है सूखी पपड़ी सा
जिसे कुरेदो तो घाव रिसने लगता है।  

कमाल है प्रिये.....
ये है हममें से अधिकांश का सच।
कड़ुवा होकर भी सच्चा सच !

चलो कुछ ऐसा करें
कि हम-तुम बन जाएँ दूसरे।
तुम बन जाओ मेरे लिए दूसरी औरत,
मैं बन जाऊँ तुम्हारे लिए दूसरा आदमी।
फिर से देखें हम एक-दूजे को
कि जैसा सोचा था कभी ख्वाबों में !
फिर से ढूँढें इक-दूजे में कोई अपने जैसा।
फिर से नज़रअंदाज़ कर दें
मोटी-मोटी गलतियाँ।
फिर से कसकर थाम लें
प्यार की वो बारीक़ डोर
बहुत दिनों से मर गया है
हमारे अंदर का प्रेमी !!!
चलो...
क्यूँ न इक बार
उसे दफनाने से पहले
उसमें फूँक कर देखें
फिर से प्रेम !!!

बैठे-बैठे यूँ ही मन में एक ख़याल आया।


तुम्हारा

देव


Saturday, 16 May 2015

एक क्षणभंगुर निशानी !!!



प्रिय देव

गीले पैरों के निशान तो कई बार देखे होंगे !
उन निशानों को कभी गहराई से महसूस किया ?
कभी उस रहगुज़र के बारे में भी सोचा ?
वो अजनबी.....
वो जाने कौन.....
जो छोड़ कर चला गया,
अपनी एक क्षणभंगुर निशानी !!!

अक्सर ऐसा क्यूँ होता है देव ?
कि हम निशानों का पीछा करते रहते हैं।  
निशानों पे निशान बनाते चलते रहते हैं।
मगर बहुत कम उसके बारे में सोचते हैं,
जो हमसे पहले एक निशान छोड़ गया।
शायद सही भी है
सिर्फ आँखों से कब दिख पाता है
सूख कर मिट चुका निशान !

आज मुझे एक अजीब से तारे के बारे में पता चला !
सितारा जो दिखता नहीं....
वैज्ञानिक उसे डार्क-स्टार कहते हैं।
मैं तो समझती थी कि भाव और विश्वास सिर्फ हम प्रेमियों की थाती है।
लेकिन ये जान कर अच्छा लगा,
कि वैज्ञानिक भी उस पर विश्वास करते हैं
..... जिसे वे चाह कर भी किसी और को अनुभव नहीं करा सकते।
   

प्रेम भी तो कुछ-कुछ ऐसा ही है देव,
छूट गए पद-चिन्हों जैसा !!!
विश्वास की मजबूत डोर को थामे हम सब यकीन करते हैं,
उन प्रेमियों पर;
जिनके पद-चिन्ह इस इक्कीसवीं सदी में धुंधलाने लगे हैं।

कौन जाने शीरी-फरहाद, सोहनी-महिवाल, हीर-राँझा या लैला-मजनू थे भी
या किसी दीवाने ने मन ही मन गढ़ लिए थे इनके किरदार !
मगर विश्वास तो देखो....
कि आज भी प्रेमी इनके नाम कि दुहाई जब-तब देने लगते हैं।

एक राज़ की बात बताऊँ ?
जब पहली बार मैंने ई-मेल आइ.डी. बनाया
तो पता है उसका पासवर्ड क्या रखा था ......
मिर्ज़ा-साहिबां !

पता नहीं क्यों ?
ये साहिबा मुझे अधूरी लगती है, मिर्ज़ा के बगैर !
कहीं पढ़ा था मैंने ...
“मन मिर्ज़ा तन साहिबां।”
बस इसी एक भाव के सहारे जीती हूँ मैं।
कोई और खयाल मुझे आंदोलित ही नहीं कर पाता।
आनंद ही नहीं देता।
मुझे मेरे होने का एहसास नहीं होता इसके बगैर।

कभी तुम भी कोशिश करना,
मेरे मन को अपने तन में लाने की !
तुम्हारे तन में मेरे मन को बसाने की !
बड़ा मज़ा आयेगा।

तुम्हारी

मैं !



Thursday, 7 May 2015

मैं बूढ़ा होना चाहता हूँ सखी !!






बड़ा विचित्र है ये दौर....
पैदा होने से पहले बीमा कराने,
और भरी जवानी में पेंशन-प्लान लेने का दौर !
खुद को एलियन समझने लगा हूँ मैं अब
...अपने ही लोगों और अपने ही शहर में।

पूरा बचपन नदी, नालों, खेतों और पहाड़ों के बीच गुज़ार कर भी
मैं कभी उनको समझ नहीं पाया।
जाने कौन सा पल था वो
जिसने मुझे जंगल से निकाल कर बाज़ार में धकेल दिया।
आज तक हतप्रभ हूँ
मगर ये जान गया हूँ
कि प्रकृति न्याय करती है
...मृत्युदंड देकर भी !
और बाज़ार हमेशा ज़िंदा रखता है
तिल-तिल मारने के लिए।

सुनो ओ सखी....
कैसे कहूँ कि
तुम किसी गैर को चाहोगी तो मुश्किल होगी।
मैं तो कहूँगा,
कि मुझे चाहो या किसी गैर को !
अगर चाहो तो टूट कर चाहना,
नहीं तो यूँ ही बुत बनी रहना,
लोग पूजने लगेंगे तुम्हें।

अटपटी लग रही हैं न मेरी बातें ?
ये बाज़ार और प्रकृति की बातें !
ये चाहत की बातें !!
दरअसल आज सुबह-सुबह छह बजे ही नहा लिया ।
सात बजते न बजते भूख लग आयी।
सो कलेवा तलाशते हुये बड़ी दूर निकल आया।
एक अनजान-सुनसान रेस्टोरेन्ट में।
वहीं पास के मंदिर में एक पुजारी को देखा
देखते ही जैसे भूख मिट गयी।

तुम्हें दिल की बात बतानी है
किसी से कहना मत,
मैंने भी अपना फ़्यूचर प्लान कर लिया है
चाहता हूँ
कि,
बीस बरस बाद मैं भी किसी सुनसान जगह पर
पीपल, बड़ और नीम की त्रिवेणी के नीचे एक मंदिर बनाऊँ।
मंदिर जिसमें कोई मूरत न हो।
मगर उसका आकार ऐसा हो
कि देखने वाले को वो बस एक मंदिर लगे।

वहाँ पर मैं अपनी सफेदी को ओढ़े हुए
हर सुबह होठों से कुछ बुदबुदाऊँ.....
जाप जैसा !!

हर दोपहर परदा खींच दूँ
और भावों ही भावों में तुमसे मिलने आ जाऊँ।
संध्या को फिर से
दीप जला कर शंख पर हाथ फेरूँ,
चाहे उसे बजा न पाऊँ।
रातों को फिर तुम्हारे ख़याल की चादर ताने गहरी नींद सो जाऊँ
अगले दिन की पूजा,
अगले दिन के मिलन के इंतज़ार में 

मैं बूढ़ा होना चाहता हूँ सखी,
अपने फ़्यूचर-प्लान को जल्द से जल्द पूरा होते देखने के लिए।
सही नहीं जाती अब, ये बेक़रारी ख़यालों की।


तुम्हारा


देव