Thursday, 9 April 2015

शायद अब बुझ जाये, जन्मों की मेरी प्यास......




दुर्लभ कोई शब्द नहीं,
एक अहसास है प्रिये।
इस अहसास को वही जान पाता है
जो भटकता है पागलों की तरह
अपनी प्यास के साथ-साथ !!!

तुम तब भी वही थी, जब अहसास थी।
तुम अब भी वही हो, जब साक्षात हो।
इसीलिए तुम दुर्लभ हो।

“तुम मुझे जानते नहीं देव”
जब-जब तुम ये कहती हो
तो पता नहीं क्या हो जाता है मुझे।
एक मासूम अपराध-बोध से भर उठता हूँ।
कि,
क्या तुम ये चाहती हो कि मैं तुम्हें जान लूँ।
या कि,
तुम हमेशा अलभ्य रहोगी ये मान लूँ।
और फिर कभी इज़हार न करूँ किसी बात का !

तुम आम लगती हो,
मगर बहुत खास हो।
और मैं...
मुझमें तो कुछ भी खास नहीं।
मेरा कोई सुनहरा अतीत नहीं,
ना ही कोई दमकता आने वाला कल !!!
मेरे तो स्वाद भी बड़े साधारण से हैं।
ठंडी पूरी,
खट्टी कैरी के आचार की दो फाँकें
और गर्मा-गर्म आलू की सब्ज़ी रसेदार।
हाँ,
इतना ही आम हूँ मैं।

मगर एक बात कहो सखी
अलौकिक व चिरंतन तो सबके लिए समान हैं !
और तुम हर रात चाँद से अपने ख्वाबों को साझा करती हो।
फिर क्यूँ नहीं पूछती एक बार
अपने हमराज़ उस चाँद से !
कि उसकी दूधिया चाँदनी
कैसे आती है सबके हिस्से में बराबर-बराबर !

हर पूरणमासी
चाँद से बतियाने ख़ातिर गायब होने वाली .....
इस पूनम पर मैंने
तुमको ही माँग लिया तुम्हारे चाँद से।
और तुम समझ बैठी
कि मुझ पर किसी हवा का साया है।

जानता हूँ,
तुम झाड़-फूँक कराने भी ले जा सकती हो मुझे।
लेकिन संभलना
कहीं ऐसा न हो
कि मेरी हवा तुमको लग जाये।
फिर मैं तुम्हें किसी ओझा के पास नहीं ले जाने वाला;
यूँ ही कमली बना कर रखूँगा
अपने दिल में।

बस कर बैठा हूँ तुमसे प्रेम
बिना तुम्हें जाने..... !

एक बात कहो
तुम्हें चाहने को
क्या इतना काफी नहीं
कि
तुम सपनों में जीती हो;
और इक बूढ़े शायर की,
जवाँ गज़लों के इश्क़ में गिरफ़्तार हो !


आज भी याद है वो शाम
जब तुमने फुसफुसाकर मेरे कानों में कहा था ....
“विश्वास नहीं होता
कोई शख़्स,
इतना मुझ जैसा कैसे हो सकता है।
जैसे तुम हो... !”
उफ़्फ़ उस शाम ने
मुझ ना-चीज़ को कितना गैर-मामूली बना दिया।

देखो तो
आज मेरे कटोरे में पानी भी है,
और चाँद भी !!!
शायद अब बुझ जाये
जन्मों की मेरी प्यास......

तुम्हारा


देव 


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