Thursday, 30 April 2015

शून्य में शून्य सा !!!






कोई एक बात
जो तुमसे कहना चाहूँ और कह ना पाऊँ
तो छटपटा उठता हूँ।
स्वस्थ होकर भी अनमना और बीमार सा महसूसने लगता हूँ।
पता नहीं...
इतना अजीब क्यों हूँ मैं।

आज सुबह नींद खुल गयी,
मगर बिस्तर से उठने का मन नहीं किया।
लेटा रहा यूँ ही ...
शून्य में शून्य सा !!!
रोज़मर्रा की कई चीज़ों पे बरसों तक ध्यान नहीं जाता  
और कभी किसी क्षण
किसी एक छोटी सी चीज़ पर ध्यान ऐसा जमता है
कि उखाड़े नहीं उखड़ता !!

लेटे-लेटे छत को निहारा,
तो पंखा दिखा।
फ़र्र फ़र्र फरफरता, घूमता पंखा।
दिन ज़्यादा उजले और बड़े हो गये हैं न
सो सुबह सात बजे की रोशनी में ऐसी चमक लगी,
मानो दस बज गये।

जाने क्या हुआ...
तुम बिजली की तरह मेरे अंतस में कौंधीं  
और फिर घुप्प से एक शून्य उभर आया।
शून्य को मिटाने का जतन किया,
तो दुष्यंत का एक शेर हौले से मेरे करीब आ गया;
इतने करीब कि साँसें टकराने लगीं।

“पत्तों से चाहते हो बजें साज़ की तरह,
पेड़ों से पहले आप उदासी तो लीजिये॥”
मैंने देखा...
फिर उस शेर के शब्दों की झालर बन कर पंखे के इर्द-गिर्द झूलते हुये
मैंने देखा अपनेआप को ....
उन शब्दों की तपिश में पिंघल कर गलते हुये  
मैंने देखा....
ख़ुद को तुम होते हुये

कितनी ज़ोर से दिल धड़का था,
जब मैंने पहली बार तुम कह कर पुकारा था।
और तुम खिलखिला कर हँस पड़ी थीं
“ओह्हो तो अब मैं आपके लिए तुम हो गयी !”
तुम्हारी उस हँसी से सहम गया था मैं।
व्यर्थ के डर....
अक्सर जोड़ लेता हूँ अपने हिस्से।
तुम्हारे साथ का आनंद तब समझ ही न पाया
इसीलिए शायद
अब विरह की उदासी में तुम्हें खोज रहा हूँ
तुम्हें जी रहा हूँ
......पल-प्रतिपल !

सच कहती हो,
प्यार करना हमारे बस में है।
मगर साथ सिर्फ संयोग से मिलता है।
देखो न,
पतझड़ के बाद कुछ पेड़ फिर से हरे-भरे हो गये,
कुछ पेड़ों में नयी कोपलें आने को हैं,
और कुछ अब भी सिर्फ़ ठूँठ हैं।
अब समझ आया
कि हरियाली दरअसल ठूँठ के हृदय में होती है।
लहलहाते पेड़ों के तने तो रीते हो जाते हैं
सब कुछ अपना..... पत्तियों को देकर !

सुनो...
मैं ऐसा ही रहना चाहता हूँ
उदास... अनंत काल तक।
एक ठूँठ.... सदा के लिए।
मैं इतना सूख जाना चाहता हूँ
कि एक छोटी सी चिंगारी भी धधका दे,
मेरे भीतर की आग को।
ताकि जब मुझसे लपटें निकलें
तो उनकी चट-चट से तुम्हारा नाम गूँजे।
ऐसा होगा ना ?
बोलो

तुम्हारा

देव


















Thursday, 23 April 2015

इश्क़ में क्या ख़ास और क्या मामूली.....




कहो देव,
बड़ा शौक है ना तुम्हें?
खुद को साधारण और मुझे ख़ास बताने का !
कभी-कभी लगता है
कि,
खुद को मामूली बता-बता कर ही
तुम मेरे लिए वो “Special one” बन गए हो
जिसके आने की उम्मीद मैं छोड़ चुकी थी।
वो गुमसुम उम्मीद, वो रूखा इंतज़ार....
जिसे तुमने आकर पूरा कर दिया एक दिन अकस्मात !

वैसे तुम हो बड़े स्मार्ट,
पूरी और आलू की सब्ज़ी की बातें कर खुद को मामूली बताते हो।
ये कहो न,
कि उस दिन मेरे हाथों की बनी “सिनमन-कुकी” न खाने की सफाई दे रहे थे।

देसी हो या विलायती....
स्वाद तो बस स्वाद है।
हर स्वाद किसी न किसी के लिए अपना सा होता है।
हर स्वाद में किसी मिट्टी की महक घुली होती है।
जानती हूँ,
मेरे स्वाद थोड़े अटपटे से हैं।
करूँ भी तो क्या
साल में आधा वक़्त पहाड़ों पर गुज़रता है मेरा
और आधा वक़्त विलायत में।
रहे तुम...
तुम्हारी तो बस एक ही दुनिया है
ख़यालों की दुनिया।

बातें तो बड़ी मीठी करते हो,
पर ख़यालों ही ख़यालों में किस से मिल आते हो मुझे क्या पता !!!
अब मुँह छोटा न कर लेना,
तुम्हें छेड़ना मुझे भी अच्छा लगता है।
तुम्हारी उस सखी की तरह,
जो अक्सर तुम्हें छेड़ कर असहज कर दिया करती है।

मेरा एक काम करोगे.....
किसी सुबह उठकर उस दरिया तक जाना
जहाँ कभी तुमने
मेरा हाथ थामा था ... पहली बार।
उस दरिया में उतरना,
घुटने-घुटने पानी तक।
फिर किसी सूखी पतली टहनी से
मेरा नाम लिखना;
पानी को चीर कर।

एक बार भी यदि,
मेरा नाम उकेर लो....
तो मैं मानूँगी
कि मैं असाधारण
और तुम मामूली !

अच्छा सुनो
आज मैंने एक नयी डिश बनाई
“... चॉकलेट चीज़ सेंडविच” !
भेज रही हूँ
खाकर बताना, कैसी लगी।
अरे हाँ
मेरे हाथों और नेल-पेंट को देखकर
फिर से कोई कविता न करने लगना।
वो सिर्फ तस्वीर है
मैं नहीं !
बुद्धू कहीं के

तुम्हारी


मैं !


Thursday, 16 April 2015

वजह........ वही अटल, अजर, अमर ...प्यार !


कोई खुद से भी ऊब सकता है भला ?
और ऊब भी इस कदर
कि जैसे शरीर शरीर नहीं एक कमरा है।  
और एक ही कमरे में दो दुश्मन बैठे हैं
....एक-दूसरे पर घात लगाये।
फिर भी हँसती रहती है पागलों की तरह !
वजह........
वही अटल, अजर, अमर ...प्यार !

उसने भी किसी को चाहा,  
जिसे चाहा उसे पा भी लिया।
और फिर खुद खाली होती गयी हर दिन, हर पल !!
और अब रोज़ सुबह नाश्ते में मुट्ठी भर गोलियाँ मुँह-बाये उसका इंतज़ार करती रहती हैं।

और वो अब भी  
आईने से नज़र बचा कर उन गोलियों से किनारा कर लिया करती है।
मैंने देखा है,
उसके घर की पीछे वाली खिड़की के ठीक नीचे
ताज़े केप्सूल और गोलियों को एक ही दिन में एक्स्पायरी होते हुये।

बड़ी अजीब है वो
जंग के मैदान में टहला करती है
बिना किसी कवरिंग फायर के।

अक्सर कहती है

“ देव,
तुमसे बात करके बड़ा सुकून मिलता है।
यकीन मानो
तुमसे जितना हँस-बोल लेती हूँ।
उतनी सहज तो कभी खुद के साथ भी नहीं हुयी।”

कभी-कभी मुझे छेड़ने लगती है
मैं असहज हो जाऊँ तो ज़ोर ज़ोर से हँसने लगती है।
मगर कल हँसते-हँसते अचानक मौन से लिपट गयी।
कुछ देर बाद बोली
“आसमान में उड़ते पंछी को
जैसे किसी ने दीवार पर टाँक दिया।”

“किसने?
चकित होकर मैंने पूछा

“उसीने....
उसके सिवा किसी और को ये हुनर आता भी तो नहीं।”

जाने किस बहाव में बह गयी।
लेकिन खुद को संभाल लिया उसने।
“जानते हो देव,
मेरा डॉक्टर मुझसे क्या बोला?
कहने लगा मेरी आँखें ही मेरी नब्ज़ हैं
मगर मेरी आँखें तो सूनी हो चुकी हैं देव,
....पथरा गयी हैं !
कोल्ड-स्टोरेज में रखे, साल भर पुराने फल की तरह।
मैं करूँ भी तो क्या
मेरे प्रियतम को तो बाग से तोड़े हुये ताज़ा फल ही प्रिय हैं।
जिन पर सुग्गा अपनी चोंच के निशान छोड़ गया हो।
तुम्हीं कहो देव
क्यों रखूँ मैं अपना ख़याल?
मेरा कुम्हला कर सूख जाना ही बेहतर है।”

मैं उसे बड़ी देर तक समझाता रहा
और वो मेरे हर शब्द को अपने मौन में घोलती रही
वो चुप रहकर भी मनमानी कर गयी
और मैं बोल कर भी हार गया।

एक बात बताओ प्रिये
तुम और वो इतने अलग क्यों हो ?
वो प्रेयसी हो कर भी तुम सी नहीं।
और तुम स्त्री होकर भी उस जैसी नहीं !

क्या हर प्रेयसी इतनी ही अलग होती है?
तो फिर प्रेम क्यों एक ही है?
तो फिर प्रेम क्यों बस प्रेम है अनादि-काल से !!
कहीं प्रेम भी दीवार पर टँकी उस चिड़िया जैसा तो नहीं.....
जो अक्सर वक़्त के साथ,
एक बेजान और निर्जीव पुतले में बदल जाता है !
और फिर दीवार पर टाँक दिया जाता है
कभी किसी उम्र की निशानी के रूप में !!!
बताओ न?

तुम्हारा

देव



Thursday, 9 April 2015

शायद अब बुझ जाये, जन्मों की मेरी प्यास......




दुर्लभ कोई शब्द नहीं,
एक अहसास है प्रिये।
इस अहसास को वही जान पाता है
जो भटकता है पागलों की तरह
अपनी प्यास के साथ-साथ !!!

तुम तब भी वही थी, जब अहसास थी।
तुम अब भी वही हो, जब साक्षात हो।
इसीलिए तुम दुर्लभ हो।

“तुम मुझे जानते नहीं देव”
जब-जब तुम ये कहती हो
तो पता नहीं क्या हो जाता है मुझे।
एक मासूम अपराध-बोध से भर उठता हूँ।
कि,
क्या तुम ये चाहती हो कि मैं तुम्हें जान लूँ।
या कि,
तुम हमेशा अलभ्य रहोगी ये मान लूँ।
और फिर कभी इज़हार न करूँ किसी बात का !

तुम आम लगती हो,
मगर बहुत खास हो।
और मैं...
मुझमें तो कुछ भी खास नहीं।
मेरा कोई सुनहरा अतीत नहीं,
ना ही कोई दमकता आने वाला कल !!!
मेरे तो स्वाद भी बड़े साधारण से हैं।
ठंडी पूरी,
खट्टी कैरी के आचार की दो फाँकें
और गर्मा-गर्म आलू की सब्ज़ी रसेदार।
हाँ,
इतना ही आम हूँ मैं।

मगर एक बात कहो सखी
अलौकिक व चिरंतन तो सबके लिए समान हैं !
और तुम हर रात चाँद से अपने ख्वाबों को साझा करती हो।
फिर क्यूँ नहीं पूछती एक बार
अपने हमराज़ उस चाँद से !
कि उसकी दूधिया चाँदनी
कैसे आती है सबके हिस्से में बराबर-बराबर !

हर पूरणमासी
चाँद से बतियाने ख़ातिर गायब होने वाली .....
इस पूनम पर मैंने
तुमको ही माँग लिया तुम्हारे चाँद से।
और तुम समझ बैठी
कि मुझ पर किसी हवा का साया है।

जानता हूँ,
तुम झाड़-फूँक कराने भी ले जा सकती हो मुझे।
लेकिन संभलना
कहीं ऐसा न हो
कि मेरी हवा तुमको लग जाये।
फिर मैं तुम्हें किसी ओझा के पास नहीं ले जाने वाला;
यूँ ही कमली बना कर रखूँगा
अपने दिल में।

बस कर बैठा हूँ तुमसे प्रेम
बिना तुम्हें जाने..... !

एक बात कहो
तुम्हें चाहने को
क्या इतना काफी नहीं
कि
तुम सपनों में जीती हो;
और इक बूढ़े शायर की,
जवाँ गज़लों के इश्क़ में गिरफ़्तार हो !


आज भी याद है वो शाम
जब तुमने फुसफुसाकर मेरे कानों में कहा था ....
“विश्वास नहीं होता
कोई शख़्स,
इतना मुझ जैसा कैसे हो सकता है।
जैसे तुम हो... !”
उफ़्फ़ उस शाम ने
मुझ ना-चीज़ को कितना गैर-मामूली बना दिया।

देखो तो
आज मेरे कटोरे में पानी भी है,
और चाँद भी !!!
शायद अब बुझ जाये
जन्मों की मेरी प्यास......

तुम्हारा


देव