कोई एक बात
जो तुमसे कहना चाहूँ और कह ना पाऊँ
तो छटपटा उठता हूँ।
स्वस्थ होकर भी अनमना और बीमार सा महसूसने लगता
हूँ।
पता नहीं...
इतना अजीब क्यों हूँ मैं।
आज सुबह नींद खुल गयी,
मगर बिस्तर से उठने का मन नहीं किया।
लेटा रहा यूँ ही ...
शून्य में शून्य सा !!!
रोज़मर्रा की कई चीज़ों पे बरसों तक ध्यान नहीं जाता
और कभी किसी क्षण
किसी एक छोटी सी चीज़ पर ध्यान ऐसा जमता है
कि उखाड़े नहीं उखड़ता !!
लेटे-लेटे छत को निहारा,
तो पंखा दिखा।
फ़र्र फ़र्र फरफरता, घूमता
पंखा।
दिन ज़्यादा उजले और बड़े हो गये हैं न
सो सुबह सात बजे की रोशनी में ऐसी चमक लगी,
मानो दस बज गये।
जाने क्या हुआ...
तुम बिजली की तरह मेरे अंतस में कौंधीं
और फिर घुप्प से एक शून्य उभर आया।
शून्य को मिटाने का जतन किया,
तो दुष्यंत का एक शेर हौले से मेरे करीब आ गया;
इतने करीब कि साँसें टकराने लगीं।
“पत्तों से चाहते हो बजें साज़ की तरह,
पेड़ों से पहले आप उदासी तो लीजिये॥”
मैंने देखा...
फिर उस शेर के शब्दों की झालर बन कर पंखे के
इर्द-गिर्द झूलते हुये
मैंने देखा अपनेआप को ....
उन शब्दों की तपिश में पिंघल कर गलते हुये
मैंने देखा....
ख़ुद को ‘तुम’ होते हुये
कितनी ज़ोर से दिल धड़का था,
जब मैंने पहली बार ‘तुम’ कह कर पुकारा था।
और तुम खिलखिला कर हँस पड़ी थीं
“ओह्हो तो अब मैं आपके लिए ‘तुम’ हो गयी !”
तुम्हारी उस हँसी से सहम गया था मैं।
व्यर्थ के डर....
अक्सर जोड़ लेता हूँ अपने हिस्से।
तुम्हारे साथ का आनंद तब समझ ही न पाया
इसीलिए शायद
अब विरह की उदासी में तुम्हें खोज रहा हूँ
तुम्हें जी रहा हूँ
......पल-प्रतिपल !
सच कहती हो,
प्यार करना हमारे बस में है।
मगर साथ सिर्फ संयोग से मिलता है।
देखो न,
पतझड़ के बाद कुछ पेड़ फिर से हरे-भरे हो गये,
कुछ पेड़ों में नयी कोपलें आने को हैं,
और कुछ अब भी सिर्फ़ ठूँठ हैं।
अब समझ आया
कि हरियाली दरअसल ठूँठ के हृदय में होती है।
लहलहाते पेड़ों के तने तो रीते हो जाते हैं
सब कुछ अपना..... पत्तियों को देकर !
सुनो...
मैं ऐसा ही रहना चाहता हूँ
उदास... अनंत काल तक।
एक ठूँठ.... सदा के लिए।
मैं इतना सूख जाना चाहता हूँ
कि एक छोटी सी चिंगारी भी धधका दे,
मेरे भीतर की आग को।
ताकि जब मुझसे लपटें निकलें
तो उनकी चट-चट से तुम्हारा नाम गूँजे।
ऐसा होगा ना ?
बोलो
तुम्हारा
देव