Thursday, 26 March 2015

शशशssss


देव सुनो...
जब लगे कि अब रहा नहीं जाता।
जब लगे कि अब कहे बिना दम घुट जायेगा।
बस तब....
तब अपने मन की बात को घूँट बना कर पी लो।
कुछ मत कहो,
बस चुप हो जाओ।
भले ही छटपटाओ,
भीतर ही भीतर फट पड़ो
इतने वेग से कि तुम्हारे शब्द टूटकर, घुलकर बह जाएँ।
अस्तित्व ही न रह जाये शब्दों का !
तब तुम समझोगे
कि चुप रहने में कितना आनंद है।
वो चरम....
जबकि रोम-रोम फट पड़ने को आतुर हो भीतर ही भीतर  !
और ऊपर से दिखता हो बस
थिरा हुआ शांत सागर !!!

मुनिया मेरी !”
इसी नाम से पुकारते हो न तुम मुझको ?
और फिर मैं झुँझला कर कहती हूँ ....
“मैं किसी की नहीं।”
यह सुनकर तुम अक्सर कुम्हला जाते हो।
ऐसा क्यों ?
बोलो भला !
ज़रूरी तो नहीं कि जो भी हम महसूसें,
उस सब को कह डालें एक ही साँस में।

अच्छा सुनो....
बहुत हुआ,
अब मिलने आ जाओ
नहीं कहूँगी कि रहा नहीं जाता
हाँ,
ये कह सकती हूँ कि अभी नहीं मिलना।
मगर मेरी बातें मेरा भाव नहीं हैं।
अरे हाँ...
अब जब भी आओ,
मुझे वो पूरा गीत ज़रूर सुनाना।
तुम्हारे बचपन का वो गीत....
जिसे तुम्हारे पिता गोधूलि वेला में गाया करते थे।
राग बागेश्वरी में !
“अब ना सताओ मोहे
प्रीतम प्यारे
तड़पत नैना
तुम्हरे दरसन को
पइयाँ पड़ूँ आओ
प्रीतम प्यारे।”

पिछली बार तुम ये डेढ़ मिनिट का मुखड़ा सुनाकर चले गए
मगर मेरे अंतस में ये गीत ठहर गया
... बीज बनकर।
देखो न अब तो उस बीज में कोपलें भी फूट आईं।
दूर-दूर तक मगर नज़र नहीं आती तुम्हारी परछाई !!!

अरे,
मैं तो तुम्हारी तरह बातें करने लगी।
एक और बात
वो सतरंजी ज़रूर लाना
जिस पर बैठकर कभी तुम्हारे पिता ये गीत गाते थे।
मुझे भी बैठना है,
एक बार उस पर !
जानते हो ना
अगले जनम में, मैं गायिका बनूँगी।
हा हा हा
पग्गल कहीं के !

तुम्हारी

मैं !





Thursday, 19 March 2015

तुम, मैं और अनंत !!!





“ बोलती क्यों नहीं चुप्पी ...
कि धड़कनों का शोर सहा नहीं जाता अब !
तुम बोलोगी,
तो चुप्प जाएगा ये तनहा शोर।”

जाने कितने और कैसे भाव !
चले आते हैं अजनबी रास्तों से मुझ तक।
और फिर होने लगता है मेरा विस्तार ...
तुम बन कर !!!

याद है तुम्हें ?
वो ब्लॉग ...
जिसे मैंने सिर्फ तुम्हारे लिए लिखा !
इंटरनेट की इस भीड़ भरी दुनिया में तनहा कोना खोज कर।
वहाँ भी मुझे उसने देख लिया था !!
वो ....
जो बातें तो तुम जैसी करती है,
पर बावरी जो मुझ सी है।
मचल उठती है बात-बात पर।
फिर कहने लगती है
“मुझे Love you  मत बोल देना ......
नहीं तो Delete हो जाऊँगी तुम्हारे जीवन से हमेशा के लिए।”
उफ़्फ़ .....
अजनबी भी खिंचे आते हैं मेरे ख़त की ख़ुशबू पाकर।  

तुम पर लिखे मेरे ब्लॉग को सबसे पहले उसने ही तो खोजा था...
और add कर लिया था अपने circle में मुझको !

पीली बोर्डर वाली सुर्ख गुलाबी साड़ी,
खुले हुये बाल,
ललाट पर लंबी काली बिंदिया,
और नीचे झुकी पलकें ।
तब भी लगे कि मानो देख रही है वो अनंत में !!!
अनंत ......
कितने कम लोग जानते हैं कि तुम अनंत में रहती हो।
वो अनंत जो मुझ में रच-बस गया है भाव बनकर....

आज वो बावरी मुझसे बोली....
“एक ख़त लिखोगे मेरे नाम !!!!
अभी ...
इसी वक़्त।”
मैं चकित रह गया।
जैसे-तैसे खुद को बटोर कर बोला ...
“कोई एक रेशमी ख़याल तो दो !
कैसे और कहाँ से शुरू करूँ ?
इस पर वो एकदम चुप हो गयी ....
और मैं किसी अनिष्ट की आशंका से ग्रसित होकर, उसके होंठों की सीवन उधेड़ने का जतन करते हुये बोला ........
“दूर बैठे टेलिपेथी ही दे दो, ताकि मैं ख़त लिख सकूँ।”
इस बार वो हँस पड़ी ।
...बेतहाशा !!!
और मैं असहज हो गया ।

तुम्हीं कहो...
प्यार तो विज्ञान से परे है न ?
फिर क्यूँ तौलने लगते हैं सब प्रेम को ....
तकनीक की तुला पर ?

तुमने तो कई बार दूर बैठे ही मुझे अलौकिक दृश्य दिखाये हैं !
फिर उन्हें साझा करना क्यों नहीं सिखाया ?
हाँ, प्रेम बाँटने से बढ़ता है
पर विश्वास के बगैर तो मूरत भी पत्थर है !
मैं उसे कैसे समझाऊँ ...
बताओ !
जानता हूँ तुम बड़ी मसरूफ़ रहती हो ,
लेकिन बस आज ...
आज कैसे भी,  मेरा एक काम कर दो !
शरीर से परे जाकर मेरा ये संदेश उस तक पहुंचा दो ..........
“कि प्रेम को किसी माध्यम की नहीं
प्रेम के भाव की ज़रूरत होती है।”
मेरे लिए इतना करोगी ना !

तुम्हारा



देव 


Friday, 13 March 2015

मिलोगी तो बोलोगी... फक्कड़ कहीं का !!!






तारीख़ से परे कभी नहीं हो पाया ......
ना ही जो कोशिश की मैंने।
ये तारीख़ें मेरे लिए नाभि-नाल जैसी हैं
इनको याद रखकर ही तुमसे जुड़ पाता हूँ।
तारीख़ें बिसरा कर मेरी दशा डाल पर ही मुरझा गयी कली जैसी हो जाती है।

आज भी नहीं भुला पाता वो इक्कीस मार्च !!!
जब तुमने अचानक डिटैच्ड होने का फैसला लिया।
बिना किसी कारण.... ऐसे ही बस।
संपर्क के सारे साधन काट दिये थे तुमने
और मैं....
मूक प्रत्यक्षदर्शी सा हतप्रभ रह गया।
कानों में साँय-साँय सन्नाटा गूँजने लगा था।
तभी किसी ने झकझोर कर पूछा था
“तुम ठीक तो हो देव।
क्या हुआ तुम्हें?
अचानक क्यों काला पड़ गया चेहरा तुम्हारा ?
कुछ नहीं कह पाया,
हड़बड़ा कर रह गया था।

सिद्ध हो तुम !!!
और मैं साधारण....
नहीं चाहता मैं सिद्ध होना।
सारे सिद्ध अदृश्य जगत में जीते हैं।
... और मेरा मन तो बस दृश्य में रमता है।

कमाल तो तब हुआ,
जब बरस भर लंबे इंतज़ार के बाद
तुमने मुझे इक्कीस मार्च को ही फिर से मिलने बुलाया।
मैं ठहरा बावरा ...
कर बैठा ज़िक्र तारीखों का !
और तुम फिर से चली गईं।
...अपने अदृश्य लोक में।
ये कहते हुये,
कि
“तुम अब भी वहीं हो देव
जहाँ पर थे...
एक सीढ़ी भी नहीं चढ़ सके
इतना वक़्त यूँ ही गुज़ार दिया।”

पता है....
इस बार तुम्हारे अदृश्य हो जाने पर भी मैं बेचैन नहीं हुआ।
तुम्हारी बातें सुनकर भी मेरा रंग स्याह नहीं हुआ।
बस हँसी आ गयी अपने आप पर।
देखो तो ...
कितना सच्चा प्रेमी हूँ मैं,
ज़रा भी नहीं बदला।
वैसा ही हूँ जैसा तुमने छोड़ा था।
वहीं पर हूँ जहाँ तुमने छोड़ा था।
अब और मस्त हो गया हूँ।
मिलोगी तो बोलोगी...
फक्कड़ कहीं का !!!

नहाने जाता हूँ तो पानी से खेलता रहता हूँ।
राह चलते अचानक किसी नंबर-प्लेट पर निगाह पड़ जाये
तो उन अंकों को तुमसे जोड़ने लगता हूँ।
अभी एक दिन थिएटर में....
एक माँ ने अपनी बच्ची को पुकारा !
संयोग तो देखो,
उस बच्ची का नाम भी वही था
जो नाम तुम्हारा है।
बस
फिर और अधिक देर थिएटर में नहीं रुक पाया।
उस बच्ची को अपलक देखता रहा,
और बाहर चला आया।

क्यों मुझे व्यर्थ ही इन छोटी-छोटी खुशियों से महरूम कर रही हो।
अपने जगत में खुश हूँ मैं !!
सच्ची प्रिये .........

तुम्हारा


देव  

Thursday, 5 March 2015

सबसे छिपाया मैंने, पर तुम से कह रहा हूँ...




यूँ तो मेरे दिल पर कोई बोझ नहीं,
और जाने कितने दिनों बाद याद आया है ये वाकया भी।
कस्बे में रहता था,
सपनों को जीता था।
हर वक़्त यही सोच कर चलता था,
कि भूल से भी चींटी पर पैर न पड़ जाये।

बचपन और लड़कपन क देहरी थी वो
एक पैर इधर था और दूसरा पैर उधर !
उन्हीं दिनों नया-नया शौक चढ़ा था,
रातों को जाग कर पढ़ाई करने का !
हर रात दोस्त के घर चला जाता,
जहाँ पर पढ़ाई कम और बुनाई ज़्यादा होती।
बुनाई...... सपनों की।
सपने.... जिनकी कोई तस्वीर नहीं थी।
बड़े छितरे-उलझे, धुंधले से सपने।

परीक्षा में अभी दो हफ़्ते बाक़ी थे
फागुन की पूनम आने वाली थी
मदमाते महुए की महक वातावरण को मदहोश कर रही थी।
किताब खोली पर मन नहीं लगा।
रात ग्यारह बजकर कोई बीस-पच्चीस मिनिट ऊपर हो चुके थे।
मैं और मेरा दोस्त मस्ता कर निकल पड़े, काली लहराती सड़कों पर।

पहले तो वीरान सड़क पर चॉक से कुछ ऊल-जुलूल लिखते रहे, फिर दौड़ लगाने लगे।
दौड़ते-दौड़ते जब थक गए,
तो एक खंभा पकड़ कर हाँफने लगे।  
हाँफते-हाँफते देखा तो एक लेटर-बॉक्स नज़र आया।
हाँ,
पोस्ट-ऑफिस का वही लाल डब्बा;
जो अब बहुत कम दिखाई देता है।
जाने क्या सूझी,
जो उस डब्बे के अंदर हाथ डाल दिया
उँगलियाँ अभी पूरी तौर से अंदर गयी भी नहीं थीं
कि हाथ में एक लिफ़ाफ़ा आ गया।
हम दोनों मचलकर
फिर उल्टे पाँव भाग खड़े हुये।
अपने कमरे में पहुँचे,
दरवाज़ा अच्छी तरह बंद किया
साँसों को काबू करने की कोशिश की
और धड़कते दिल से लिफ़ाफ़ा खोल लिया।

दो तस्वीरें थीं,
जो फिसल कर नीचे गिर गईं
और एक ख़त था चार पन्नों का !!!
“ मेरे चाँद,
देखो तुम्हारा बेटा अब बड़ा हो गया है।
पापा-पापा कहता है,
तुम्हारी तस्वीर के आगे देर तक हँसता रहता है।
तुम कब आओगे ?
रातों को नींद नहीं आती।
तकिया मेरा मुँह चिढ़ाता है
आँसू थमते नहीं,
मैं रोती हूँ तो तुम्हारा नादान बेटा समझता है,
कि मैं उसके साथ कोई खेल, खेल रही हूँ।
वो ताली बजा-बजा कर हँसता है।
और तुम....
बे-दर्द बनकर दूर अरब देश जा बैठे।
इस बार मेरी तस्वीर के साथ बच्चे की तस्वीर भी भेज रही हूँ।
कि कहीं तुम्हारा दिल पिंघले
और तुम कुछ दिनों के लिए ही सही,
अपने घर आ जाओ......”

मैं इसके आगे कुछ पढ़ न सका।
बस वे दो फ़ोटो उठाकर एक बार देखे,
जो उस लिफ़ाफ़े से गिर गए थे
और रोते-रोते भाग कर घर आ गया।

मुझे आज भी नहीं मालूम कि मैं क्यों रोया था
हाँ इतना पता है,
कि एक ज़बरदस्त अपराध-बोध मन में था।
साथ ही अपने पिता के हाथों पिट जाने का डर भी।
अगले दिन वो दोस्त मेरे पास आया,
मुझसे उम्र में थोड़ा बड़ा था वो।
बोला....
”तू चिंता मत कर,
मैं उस ख़त को एक नए लिफ़ाफ़े में डालकर
पता लिखकर पोस्ट कर दूँगा।”
ऐसा लगा जैसे किसी की ज़िंदगी वापस लौट आई।

परीक्षा के बाद मैंने वो कस्बा छोड़ दिया
लेकिन आज वो याद फिर से मुझे भिगो रही है।
पिंघलते मोम की मोटी-मोटी बूँद बनकर…….
मैं फिर से उस कस्बे में जाना चाहता हूँ
फिर उस दोस्त से मिलना चाहता हूँ
ये पूछने कि उसने ख़त को फिर से पोस्ट किया या नहीं ?
पर डर लगता है
कि कहीं वो ख़त पोस्ट करना न भूल गया हो !
और उससे भी बड़ा डर ये,
कि कहीं वो ये वाकया ही न भूल चुका हो !!!
मैं क्या करूँ प्रिये
कुछ सूझ नहीं रहा............

तुम्हारा

देव