Thursday, 8 June 2017

अतीत की बावड़ी, यादों की डुबकी








क्यूँ नहीं समझ पातीं
कि मैं लिखने के लिए नहीं लिखता....
जब ख़ुद में समेट-समेट कर छटपटाने लगता हूँ
तो अनायास ही रिसने लगता हूँ
और तुम्हें लगता है
कि मैं……..  बस लिखा करता हूँ।

ज़्यादा दूर की नहीं
कल सुबह की ही बात ले लो,
ख़ाकी कागज़ के पूड़े में
अढ़ाई सौ ग्राम फ़ालसे रखकर
तुम जाने कब चली गईं,
और मैं उन्हें
काँच की तश्तरी में सजाये
अतीत की बावड़ी में उतर गया।
हर नयी डुबकी के साथ
एक नयी याद !!!

अहा ....
कितना विलक्षण है इन फ़ालसों का स्वाद।
हल्के मीठे, हल्के खट्टे .....
वो एक बिन्दु,
जहाँ से कसैलापन शुरू होता है
उसके ठीक पहले ठिठके हुये !
बहुत-बहुत पहले
गर्मी की छुट्टियों और ननिहाल के दिनों में
एक फल वाला निकला करता था।
जो बड़े अजीब अंदाज़ में
गाते हुये फलों को बेचा करता
“लालों में लाल है
हर माल लाल है,
गर्मी का दुश्मन
सर्दी का काल है।”
दो बड़ी टोकरियों में चार खाने बनाकर
जामुन, फ़ालसे, खिरनियाँ, करोंदे !
ठेठ देसी और जंगली फल लाया करता था।

मैं अक्सर
उसकी आवाज़ सुनकर बौरा जाता
कभी सिर्फ बानियान और निकर में
तो कभी खुले हुये बटन के साथ हवा में लहराती शर्ट डाले
डामर से चिपचिपाती सड़क पर
नंगे पैर, भईया ओ भईया  ... रुको
की आवाज़ लगाता दौड़ पड़ता।
और वो मुसकुराते हुए
मुझे धीरे-धीरे आने का इशारा करता।

जाने कब गुज़र गये
वे दिन ......!
फिर लड़कपन को यौवन ने बिदा किया।
उन्हीं दिनों की बात है
जब तुम कॉलेज से लौटती हुई
मुझसे मिलने आती थीं
तब अक्सर एक बूढ़ा .... निरा बूढ़ा,
आया करता था।
जिसे तुम कंबल वाला बाबा कहती थीं।
छोटा कद, सांवला रंग
टूटे ऐनक को सूत की डोरी से बांधे  
अशक्त हो चले हाथों से मंजीरे बजाता हुआ,
मैं उसको आटा दिया करता था।
दिन के साढ़े बारह और सवा के बीच
वो हर शनिवार मेरे घर वाली गली,
और हर गुरुवार या शुक्रवार को
तुम्हारे घर की ओर आता था।

और याद है
ख़राशदार आवाज़ वाला वो साठ पार का आदमी
जो साइकल पर बैठ कर
पपीते, अंगूर और चीकू बेचा करता था।
सुस्ताने के लिए
वो मेरे घर के सामने 
गुलमोहर के नीचे बैठा करता।
मैं उसे पूरा एक जग पानी देता
जिसे पी कर
वो मुझे तृप्त निगाहों से देखते हुये
बीड़ी सुलगा लेता।
तब न चाहते हुये भी
मैं रूखी सुलगती बीड़ी के कच्चे धुएँ
और पके हुये फलों की मीठी महक के बीच
तुलना करने लगता था।
और तुम...
खिड़की में से ये सब देखती
कहीं खो सी जातीं।  
जाने कहाँ खप गये होंगे अब
...... सब के सब !!

सुनो...
आज ऐसा मन हुआ
कि इन तीनों को कहीं से ढूँढ ले आऊँ
ये फ़ालसे उन्हें खिलाऊँ
और बिना झिझके उनको ये बताऊँ
कि कुछ अजनबी लोग
हमारी यादों का सबसे प्रिय हिस्सा होते हैं।
बस.....
ये बात हम कभी, किसी को बता नहीं पाते !

तुम्हारा

देव 

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