पैंसठ साल ....
या शायद इससे भी कहीं पुराना चोला
ओढ़े हुये है उसकी आत्मा
.... इस जनम में !
वो मुझे उम्रदराज़ नहीं लगता।
सात समंदर पार से भी
उसके सानिध्य को ऐसे जीता हूँ
जैसे समीप ही बैठा है वो मेरे।
अक्सर कहा करता है वो मुझसे...
“लव यू क्यों बोला करते हैं लोग?
यदि ‘लव’ है,
तो फिर ‘यू’ की जगह कहाँ !”
मैं उसकी बात का महीन रेशा पकड़
एक ख़याल बुनने लगता हूँ
तभी दूर कहीं, कोई निर्गुणिया
गुज़रता है।
इकतारे पर कबीर को गाते हुये।
और मैं फिर से
अदृश्य के सागर में डूबने लगता हूँ
डुब्ब.... डुब्ब !!
एक आवाज़ कानों में पड़ती है
बिलकुल अलग आवाज़
जो पहले कभी न सुनी !
“प्रेम ने कभी कुछ माँगा है भला?
प्रेम तो बस देता है।”
उस आवाज़ के खत्म होते न होते
कान के पर्दे से
एक और आवाज़ टकराती है।
“प्रेम भी कभी सोच समझ कर किया जाता है भला !”
गुन्न, गुन्न भँवरे जैसा
जाने क्या गुंजायमान होने लगता है।
और फिर...
एक अजीब सा सम्मोहन
तारी हो जाता है !
देखो तो इस दीवाने को
पगला कहीं का
कितने सुकून में है
जाने क्या लिख रहा है
कचरे के ढेर के बीचों-बीच बैठकर !
इसके पास जाने से झिझक गया,
इसीलिए तस्वीर थोड़ी धुंधली आई।
नहीं तो दिखाता तुमको
इसके चेहरे का सुकून !
जब इसको देखा
तो आस-पास का हर नज़ारा भूल गया।
लोग...
जो उम्रभर
इस कोशिश में लगे रहते हैं
कि कभी ख़ुद से मुलाक़ात हो जाये।
लोग...
जो छटपटाते रहते हैं
बाहरी आवरण को सजाये हुये
भीतर से अस्त-व्यस्त लोग !
उनके लिए
जीता-जागता रोल-मॉडल देखा मैंने आज !
गुड़िया मेरी .....
एक पल को लगा
कि दुनिया से बेपरवाह ये शख़्स
इतना तल्लीन होकर
कहीं तुमको तो ख़त नहीं लिख रहा !
फिर अचानक तुम्हारा ख़याल आया
और मैंने सोचा
कि यदि तुम इस वक़्त यहाँ होतीं
तो झट से, उस दीवाने के पास
जाकर
बातें करने लगतीं
और यक़ीनन वो भी
तुम्हारी हर बात का जवाब देता।
लेकिन मै...
चाहकर भी
नहीं बन सकता
.... तुम जैसा !
मगर हो सके
तो मुझे इसके जैसा बना दो।
दुनिया की परवाह से दूर
ख़ुद ही में मगन
एक प्रेमी, एक जुनूनी !
एक पागल ....
जिसे अपने पागलपन पर फ़ख्र हो।
सुनो ...
ऐसा क्यों हो गया है
कि अब पागल बहुत कम दिखा करते हैं !
सबके सब पत्थर बन गए हैं,
या समझदार हो गए हैं !
बोलो ?
तुम्हारा
देव
ऐसा कमाल का लिखा है आपने कि पढ़ते समय एक बार भी ले बाधित नहीं हुआ और भाव तो सीधे मन तक पहुंचे !!
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