Thursday, 25 February 2016

तथास्तु कह दो ना....



वे भी क्या दिन थे
जब पैर ज़मीं पर
और निगाहें आसमां की ओर लगी रहतीं थीं।
उन दिनों आसमान कुछ ज़्यादा नीला दिखता था।
एक चश्मा भी हुआ करता था, बिल्लौरी काँचवाला।
एक आँख पर उमंग और दूसरी पर सपना चढ़ाये।
अक्सर बहुत दूर, ऊंचे आसमान में
जेट को उड़ते हुये देखता।
और फिर तब तक खड़ा रहता
जब तक कि
उसकी धुएँ की लकीरें धुंधला न जातीं।

माँ कहती हैं
बहुत साल पहले
गजरा और वेणी बेचने वाला आया करता था।
सुबह-सुबह,
सात और आठ के बीच !
सुबहें अब भी होती हैं
मगर टोकरी में मोगरे की खुशबू भरकर
दरवाज़े के बाहर खड़े होकर,
अब कोई नहीं पुकारता।
माँ को लगता है
चोटी रखने का रिवाज़ ख़त्म हो गया शायद !
देखो ना....
यादें कैसे वर्तमान का आंकलन करने लगती हैं।

तुमसे जुड़ा वो एक लम्हा
जिसका इंतज़ार मैं पिछले छह महीनों से कर रहा था
वो लम्हा आया
मेरी आँखों के सामने से गुज़रा
और मैं पहचान नहीं पाया।
क्यों होता है ऐसा...
ठीक उसी दिन,
मैं सबकुछ भूल गया।
तुम तो हँसकर चलीं गईं
मगर मैं...
मैं सुलग रहा हूँ,
एक अजीब सी आग में !
जो ना गरम है, ना ठंडी
बस एक अजीब सी चुभन है।
अब समझ में आता है
शकुंतला का दर्द;
क्यों भूल जाता है
कोई दुष्यंत...
हर बार शकुंतला को !

याद है
एक बार तुम बोली थीं  
“देव
Regrets को कसकर hug कर लो
You will feel the real joy!
बस...
अब वही करने की कोशिश कर रहा हूँ।

जानती हो,
रिश्ते कभी-कभी भूल-भूलैया जैसे लगते हैं
भूल-भूलैया...
जो ललचाती है,
सिर्फ़ भटकाने के लिये।
हर बार...
ना जाने क्यों,
मैं ललक कर अजनबियों को अपना लेता हूँ।
अजनबी तो फिर अजनबी ठहरे
देखकर भी अनदेखा कर देते हैं।
ठीक वैसे ही  
जैसे कि WhatsApp मैसेज पर
डबल ब्लू टिक होने
और ऑनलाइन दिखने के बाद भी
कोई एक स्माइली न दे।

जाना मेरी....
जेट के धुएँ के इस क्षणिक चिन्ह की तरह
मेरी याददाश्त बना दो
ताकि लोगों के बेवजह के व्यवहार को
याद कर-कर के
मैं मन ही मन घुटता न रहूँ।
उस बच्चे की तरह हो जाऊँ
जो शरीर और मन
दोनों की चोंट के बाद भी
आँसू पोंछकर
फिर से हंसने-खेलने लगता है
तथास्तु कह दो ना....
बस एक बार !

तुम्हारा
देव




Thursday, 18 February 2016

उत्थान नहीं होगा... तो मोक्ष कैसे मिलेगा





मुंडेर पर कोई
प्रवासी पक्षी आकर बैठ जाये
जिसे देखकर सिहरन हो
और ना देखो
तो दिल की धड़कन बढ़ जाये।
ऐसा ही होता है प्यार
कभी पानी,
कभी पारा,
तो कभी पत्थर जैसा !

सूरज मेरे ....
बस आज के लिये
मैं तुम्हारा नाम बसंत रख लूँ !
पीली साड़ी में बड़ी बिंदी लगाये
जो गुज़री है ना अभी तुम्हारे पास से....
जिसकी खुशबू से तुम
ख़ुद को भूले
आँखें बंद किए, थिर से गए हो।
वो,
जिसके सामीप्य ने
तुमको इतना परिपूरित कर दिया
कि तुम,
कंठ में ठहरा घूंट भी
नहीं उतार रहे नीचे !
ना तो पलट कर देख रहे हो
ना ही आगे बढ़ पा रहे हो।
...वो मैं ही हूँ देव !
...वो मेरा ही एहसास है !!  

कुछ नर्म अहसास
इतने साक्षात होते हैं
कि हम उनको हाथ बढ़ा के छू लें,
और कभी इतने अमूर्त
कि उनके आगे हवा भी ठोस नज़र आने लगती है।


देखो तो इस पक्षी को
विचित्र सा है ये
पहले कभी नहीं देखा
पीठ सलेटी
पंख हल्के नीले
और पेट सफ़ेद।
जाने कहाँ से आया ये तुम्हारी मुंडेर पर
और बैठ गया
एक टांग भींचे
एक ही टाँग के बल पर।
गर्दन घुमा रहा है चारों तरफ,
जाने क्या खोजता है...
शायद दर्द लेकर आया है कोई अपने साथ !
देखो ना ये दरार
दीवार भी चटक गयी।
कुछ दर्द कहे नहीं जाते,
फिर भी सबको दिख जाते हैं।
और एक तुम हो
बावरे पंछी,
भटकते रहते हो यहाँ-वहाँ !
बसंत पंचमी के दिन भी
अपनी प्रेयसी को केसरिया भात खिलाना भूल गये।
तिस पर फोन करके पूछते हो
कि मैं कैसी हूँ।

सुनो...
मैं इस पंछी के जैसी हूँ
मेरा दर्द नहीं दिखता किसी को
बस सब मुझे अचरज से देखा करते हैं
किसी की आँखों में प्यार
तो किन्हीं निगाहों में संदेह रहता है मेरे लिये।
तब भी मुझको
कोई गिला नहीं ।
आत्मा के उत्थान के लिये आए हैं हम-तुम
उत्थान नहीं होगा
तो मोक्ष कैसे मिलेगा
है ना ?

बस एक छोटी सी बात कहनी थी
खूब जानती हूँ तुमको
दिन पर दिन सहज होते जा रहे हो
और मेरा नाम तुमने
सरला रख दिया है
तुम भी ना....
मुझमें ख़ुद को देख रहे हो
या ख़ुद में मुझको !
बोलो ?

तुम्हारी

मैं ! 

Thursday, 11 February 2016

तुम्हारे संसार का हिस्सा बना लो ना मुझे




आज फिर तुमने,
एक तस्वीर भेजी। 
एक आम तस्वीर .....
जो दिव्य है मेरे लिये।
पेंटिंग बनातीं तुम
और तुम्हारा साथ देती
हौले से ब्रश को थामे
तुम्हारी प्यारी बिल्ली।

सच-सच कहूँ....
तुम्हारा हर इशारा नहीं समझ पाता मैं।
मगर हाँ,
कुछ ख़ास घटने लगता है
मेरे जीवन में....
तुम्हारे गूढ़ संकेतों के बाद।

बिल्लियों को पहले भी देखता था,
मगर एक दूरी से।  
पर अब एक आस्था जाग गयी है,
मेरे मन में इनके लिये;
तुम्हारी सहेलियाँ जो हैं ये !

बरसों पहले
खूंखार घरेलू बिल्लियों वाली
जो हॉलीवुड फिल्म देखी थी ना
उसके खौफ़ के निशान
ज़ेहन की पगडंडी से मिट गए हैं अब।
तुम्हारे साथ का असर है ये मुझ पर !

जानता हूँ,
कि मेरी बात सुनकर तुम मौन ही रह जाओगी।
कि जब-जब मैं दीवाना होता हूँ
तब-तब तुम तटस्थ हो जाती हो
निस्पृह-निर्लिप्त सी !

उस दिन जब,
मैं तुम्हारी तस्वीर पर मोहित हुआ
तब कितनी साफ़गोई से बोली थीं तुम...
इसमें मेरा कुछ नहीं !
प्रॉपर-लाइट, बैकग्राउंड और इन वादियों का असर...
इस सब से मिलकर तस्वीर सुंदर बन पड़ी है।
सरला मेरी ...
कितनी सहज हो तुम !
कितनी गरिमामयी !!
बिलकुल धरती के जैसी।

तुम कविता नहीं लिखतीं
फिर भी तुम्हारी बातें महाकाव्य सी लगतीं हैं।
कई-कई बार मैं सोचता रह जाता हूँ,
कि रसोई, बाज़ार और आँगन को संभालतीं तुम;
अपनी कूची में इतने रंग कैसे सहेज लेती हो !

कोई महत्वाकांक्षा नहीं,  
पर जीवन जी लेने की अदम्य लालसा !
कोई जल्दबाज़ी नहीं,
पर लगातार चलते रहने की उत्कट आकांक्षा !
और जो कभी
तुम निर्बंध होना चाहो
तो रो लिया करती हो जी भर,
तकिये से लिपटकर।
उफ़्फ़ तुम...
और तुम्हारा इमैजिनरी-वर्ल्ड,
जहाँ ऐन्जल आते हैं
तुम्हें थपकियाँ देने।

सुनो...
मुझे भी अपने संसार का
हिस्सा बना लो ना !
जीना चाहता हूँ मैं ...
तुम्हारा सानिध्य !

कभी-कभी यूँ लगता है
कि तुम्हारे आस-पास घूमती ये बिल्लियाँ
कितनी खुशनसीब हैं
और कितनी सिद्ध भी ...
जो अपनी सीमाओं  
और दुनिया की सोच के पार जाकर
जी रही हैं तुम्हारा साथ !

सखिया सुनो ...
वैसे तो हर दिन प्रेमोत्सव है
पर वेलेंटाइन-डे का वास्ता देकर,
कुछ मांग लूँ तुमसे ?
ये बिल्ली दे दो ना मुझे अपनी...
जब भी तुम्हारी याद आएगी
इसे छू कर,
मैं तुम्हारे अहसास से सराबोर हो जाऊँगा।
निहारा करूँगा देर तक,
फिर आँखों ही आँखों में बतियाऊंगा।
इसके साथ खेलूँगा,
जब इसको भूख लगेगी,
तो दूध-बिस्किट खिलाऊंगा।
और जब थक जाएगी,
तो थपकी देकर इसके साथ मैं भी सो जाऊँगा।
तुम्हीं ने तो सिखाया है मुझे
दुनिया से दूर
इमैजिनरी-वर्ल्ड में अपना सुख ढूँढना !  
सरला मेरी !!!

तुम्हारा
देव






Thursday, 4 February 2016

इंतज़ार है फिर से उस ‘मिस-कॉल’ का !





आज फिर...
उसी नंबर से मिस-कॉल आया,
लगातार सात कॉल किए मैंने उसके बाद !
मगर घंटी घनघनाती रही बस....
हाँ,
एक रिकॉर्डेड संदेश ज़रूर उभरता रहा बार-बार
जिसे सुनकर,
मैं समझ गया;
कि ये तुम ही हो !
तुम्हारे प्रांत की बोली
अब समझ आने लगी है मुझे।

कितना अच्छा है
कि हम समकालीन हैं
;
नहीं तो कैसे बन पाता मैं, तुम्हारा देव !
और तुम भी तो फिर
तुम नहीं रहतीं।

जानता हूँ,
समझदारी की उम्र में चाहा है तुमने मुझको !
वरना लड़कपन में तो तुम
उस शायर की दीवानी थीं
जो तुम्हारे जन्म से भी पहले
कुछ गीत, कुछ नगमे सुनाकर
हमेशा के लिए चला गया;
यौवन की दुपहरी में....!

अब लगता है
कि अच्छा ही है
तस्वीरों से प्यार करना भी।
खुशी के सारे सबब,
हम तस्वीर के नाम कर देते हैं
और गमों के लिए,
ख़ुद को क़ुसूरवार मान लेते हैं।

यक़ीन मानो...
मेरी तड़प को तुम,
इस जनम में नहीं समझ पाओगी।
हर बार बेकल हो उठता हूँ
कि जैसे....
आख़िरी चंद बूंदें बची हैं स्याही की
और एक पूरी गाथा
लिखनी बाक़ी है अभी !
कि जैसे...
हाशिये भर कागज़ पर
ज़िंदगी उकेरनी है पूरी !
हर बार कोई
इतना खुश तो नहीं रह सकता
जितना कि वो दिखता है
या दिखने की कोशिश करता है।

तुम तो बड़ी समझदार हो प्रीति !
फिर क्यों इस फेर में पड़ गईं ?
ये लमहा....
जो फिसल रहा है
मुट्ठी में बंद रेत की मानिंद;
यही तो बस अपना है।

फिर-फिर वही गलती क्यों कर बैठती हो ?
कि किसी और की मुक्ति के लिए,
अपने पुण्य दे देती हो !
और तो और
अंजुरी में जल भरकर,
संकल्प भी ले लेती हो।
मगर मैं ऐसा नहीं....!
सच कहता हूँ
मैं बिलकुल भी नहीं, तुम जैसा !
मैं जी लेना चाहता हूँ
हर एक लमहा;
संकल्प और विकल्प के पार आकर !

इसीलिए....
आज फिर नी गॉर्ड पहना
आज फिर मैंने बाइक उठाई
आज फिर माइलोमीटर की सूई सवा-सौ के ऊपर हुई
आज फिर तुम बहुत याद आयीं।

सुनो...
आज की रात मुझे सोने मत देना
इतने मिस-कॉल करना
कि मेरी नींद उड़ जाये
कि फिर मैं चंद बूंद स्याही से,
हाशिये भर कागज़ पर
एक पूरी गाथा लिखने के लिए छटपटाऊँ
मगर लिख न पाऊँ।
करोगी ना ऐसा ?
मेरे लिए... !

तुम्हारा
देव