प्रिय
देव,
मुझे
अन्यथा न लेना
मगर....
मैं
हँसती रहती हूँ
मुश्किल
हालत में भी।
और तुम
....
दुखी
होने के बहाने तलाशा करते हो।
लेखक
हो ना ...
शायद
इसलिये
लेकिन
ये सब ज़रूरी है क्या ?
तुम्हीं
कहो .... !
“मैं
तुम्हें फिर मिलूँगी” ......
अमृता
प्रीतम की इस किताब के एक सौ पांचवें पन्ने पर,
तुमने
एक मोर-पंख रख कर भेजा था ना मुझे।
और एक
छोटा सा उपन्यास ... ‘नागमणी’ !
जिसके
सहारे मैंने,
एक लंबी
हवाई यात्रा पूरी की थी।
उस पूरे
उपन्यास में
तुमने
जगह-जगह यह दिखाने के लिए अंडर-लाइन किया था
कि तुम
भी मुझे वैसे ही चाहते हो
जैसे
कि उस उपन्यास की नायिका ने,
अपने
नायक को चाहा !
हाँ,
तुम
उदास हो इन दिनों।
कुछ
यादों को हमेशा के लिए साथ बहा ले गयी,
क्या
करें ?
बारिश
ही तो थी !
ये जानकार
मुझे भी तकलीफ हुई
कि किताबों
का वो गट्ठर
जिसे
तुम पिछले बारह सालों से संभाले थे
इस बारिश
ने सीला कर दिया
कुछ
पन्ने अब कभी भी पलटे नहीं जायेंगे।
लेकिन
उस बारिश को क्या कहें
जो देहरी
पार कर
घर के
भीतर चली आये
वो भी
अढ़ाई बजे रात में
...
निर्लज्ज जैसी !!
देव
सुनो ...
वादा
करो
कि इस
उदासी को खुद पर
इतना हावी न होने दोगे
कि बची
हुई साँसों का मोल भूल जाओ।
एक अनजाने
भय में जीते हो तुम।
कभी-कभी
लगता है
कि ‘पैशन’ है ये तुम्हारा
हमेशा
आशंकित रहना !!
क्या
मैं गलत हूँ
बोलो
?
बारिश
चली गई
मगर
तुमने उसकी नमी सहेज ली।
देखो
अब
तुम
खुद फिसल गये
उसके
गीलेपन तले।
ज़रूरी
तो नहीं
कि हम
हर कदम के बाद
रुककर
....
एक अनजान
आशंका की आहट सुनें।
और हर
फिसलन के बाद
फिज़ियोथेरेपी
और अल्ट्रा-साउंड मशीन का सहारा लें।
अस्तित्व
के मिटने की चिंता नहीं मुझे
मगर
अस्तित्व के रहते
खुद
को मिटा हुआ मान लेना भी बर्दाश्त नहीं।
जानते
हो ...
कल की
रात,
मैंने
एक जंगल में बितायी।
और आज
सुबह के झुटपुटे में
एक मोर
को नाचते देखा।
झूम-झूम
कर नाचा वो मोर मेरे सामने
और जाते-जाते
एक पंख
छोड़ गया
.....
मेरे लिये।
तुम्हारी
एक किताब अब भी महफ़ूज है
.....
मेरे पास।
नमी
और सीलन से अछूती।
उस किताब
के सौलहवें पन्ने पर
मोर
का ताज़ा पंख रखकर भेज रही हूँ
सहेज
लेना !!!
समझ
गये ना,
बुद्धू
मेरे !!
तुम्हारी
मैं
!